यदि उनका सरनेम ''त्रिपाठी'' होता तो वे ''त्र'' से आरंभ होने वाले धारावाहिक बनाती यथा ''त्रिशूल'' सास के कमरे में। मगर चूंकि (1) उनका सरनेम कपूर है और (2) महिला ज्योतिषी ने उनसे कहा है, अत: उनके धारावाहिक ''क'' से आरंभ होते है यथा क्योंकि सास भी कभी बहू थी, कुसुम, कहानी घर-घर की आदि। और वे घर क्या हैं, मुगलकालीन महल हैं। भोपाल, नागपुर या इन्दौर में तो ऐसे घर एकाध ही होंगे, फिर वह कहानी, घर-घर की कैसे हुई? यदि वे ''कहानी झोपड़ी झोपड़ी'' की भी बनाती तो उनकी झोपड़ी से हमारे घर शर्मिन्दा होते। उनके घर-घर के पात्र तो महंगी साडिय़ां या सूट पहनते हैं। उन्हें हमारे घर की महिलाएं और हम सपने में छूने या देखने से डर जायेँ। उनके महलों और हमारे घर में एक ही साम्य है, वह यह कि नौकर दोनों जगह नहीं दिखते। भगवान जाने उनके घर में पार्वती भाभी पोंछा कब लगाती होंगी। बहरहाल, रात्रि के नौ बजे के बाद प्रथम पुरूष के घर में महिला सशक्तिकरण प्रहर चालू हो जाता है। नौ बजे तक यदि प्रथम पुरूष ने खाना खा लिया तो खा लिया, नहीं तो उसकी श्रीमती और दोनों बच्चियां सोफे पर दचक कर बैठ जाती हैं। उस समय उनसे एक गिलास पानी भी मिलना मुहाल हो जाता है। उस इडियट से पार्वती भाभी, तुलसी, इत्यादि बार-बार आकर उन बेचारियों को रूला जाती हैं। आंसू पोछने के लिए रूमालों की अदला बदली होने लगती है। हर सीरियल के लिए ताजा रूमाल निकाला जाता है। प्रथम पुरूष के घर के सदस्यों की मानसिक दशा पार्वती भाभी की मानसिक दशा पर निर्भर रहती है। तुलसी दुखी तो उसकी पत्नी महादुखी। उसे वे दिन स्मरण कराये जाते हैं जब उसने दो साल पहले होटल में खाना खिलाने का वादा किया था और वह भूल गया था। वहां तुलसी पर अन्याय होता है यहां उसको दूरदर्शन के सामने बिठाल कर उलाहना दी जाती है। अगर यह और वह डेटिंग करते हैं तो भगवान से प्रार्थना करता है कि हे, भगवान, उसको वह धोखा न दे नहीं तो मेरी शामत आ जायेगी। यदि यह उसको धोखा देता है तो मुझे कसमें खाकर विश्वास दिलाना पड़ता है कि अगले एपीसोड में यह उससे माफी मांग लेगा। मुझे शक है कि आदित्य बिड़ला या अजीम प्रेमजी या टाटाज या मेडम गोदरेज या अम्बानीज इन धारावाहिकों को देखते होंगे। मुझे तो इन धारावाहिकों के धड़ से दिखते ह सिर पैर तो समझ में ही नहीं आते। क्योंकि सास भी कभी बहू थी में मुगल खानदान की तरह एक साथ पांच पीढिय़ों की सास और बहू दिखाई जाती है। एक धारावाहिक में मुझे सन्जू दिखा तो मैंने कहा अरे यह तो क्योंकि, सास भी कभी बहू थी में अंश था, तो मेरी बड़ी बेटी ने ठंडे स्वर में कहा, पापा सीरियल रोज और ध्यान से देखा करो। अंश वहां मर चुका है। उन पात्रों को देखकर मेरी हिम्मत यह बतलाने की नहीं होती कि अमुम पात्र कुसुम में दाहिने तरफ लौंग पहिने थी और इस सीरियल में बायीं तरफ। प्लास्टिक सरजरी में नथुनों के साथ-साथ लौंग का भी स्थानांतरण हो जाता होगा और उस दिन तो हद ही हो गई। मेरा एक मित्र कहने लगा कि उसकी पत्नी कार खरीदने पर जोर दे रही है। मैंने कहा कि खरीद लो। मित्र घबराया हुआ था। मैंने पूछा इसमें घबराने की क्या बात है? तुम रिश्वत तो खाते ही हो कार आसानी से खरीद सकते हो। उसने कहा यह इतनी सरल बात नहीं है। पत्नी देवरानी को कार से धक्का देकर ही घायल करना चाहती है, जैसा कि अमुक सीरियल में हुआ था। ये सीरियल कब तक दिखेंगे कोई नहीं जानता। इसके निर्माता बडज़ात्या या चोपड़ा जैसे गौरतमंद नहीं हैं, किसी पटकथा के कारण उनके रामायण या महाभारत जैसे सीरियल साल दो साल में सप्ताह की रेट से खत्म हो गये। ये सीरियल तो ब्रम्हा की इस दृष्टि से अगली दृष्टि में भी शायद चलते रहें। हर महिला के विवाहेत्तर सम्बन्ध बतलाये जा रहे हैं। हर पात्र को षडय़ंत्रकारी और हत्यारा बतलाया जा रहा है। क्या भारतीय महिलाएं और संस्कृति इतनी ही निकृष्ट है? आश्चर्य है कि जरा-जरा सी फालतू बातों पर बवाल मचा देने वाला कोई भी महिला संगठन इन विकृत प्रस्तुतियों पर आवाज नहीं उठाता। -डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव (प्रैसवार्ता)
Tuesday, December 1, 2009
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