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Friday, May 28, 2010

सुरीली आवाज का बादशाह: मुहम्मद रफी

31 जुलाई 1980 ने सुरीले संगीत के बादशाह मुहम्मद रफी ने इस संसार से विदाई ले ली थी, जिस पर फिल्म जगत के साथ-साथ लाखों लोगों ने शोक प्रकट करते हुए कहा था कि ''रफी की मौत के साथ ही वास्तव संगीत का एक युग समाप्त हो गया है। मुहम्मद रफी का जन्म अमृतसर से उत्तर-पश्चिम की तरफ 23 किलोमीटर दूर ग्राम कोटला सुल्तान सिंह में 24 दिसम्बर 1924 को अली मुहम्मद के घर हुआ, जोकि जाति के नाई थे। मुहम्मद रफी बचपन से ही गाने-बजाने के रसिया थे और अक्सर जालंधर के हरवल्लभ मेले में बड़े-बड़े उस्तादों के राग सुनने जाते और खुद भी अपने राग सुनाते। मात्र तेरह वर्ष की छोटी सी आयु में रफी ने दिल्ली और लाहौर रेडियो स्टेशन पर गीत गाने शुरू कर दिये थे। स्वर्गीय कुन्दन लाल सहगल के बाद भारतीय संगीत की दुनिया में रफी का नाम लिया जाता है। त्रषि-मुनि और गुरुओं की धरती अमृतसर से मुहम्मद रफी को एक ईश्वरीय रोशनी प्राप्त हुई, जिसकी बदौलत उसने विश्व भर में अपने बेमिसाल कंठ की सुरीली आवाज से विशेष नाम कमाया। वर्ष 1945 से लेकर 31 जुलाई 1980 तक रफी ने 26 हजार गीत गाये। उन्हें वर्ष 1968 में पदम श्री उपाधि से सम्मानित किया गया। रफी ने अन्य भाषाओं के साथ-साथ पंजाबी भाषा में भी बहुत गीत गाये। पंजाब को इसका गर्व है कि पंजाब में जन्म लेकर रफी ने अपनी जिन्दगी का प्रथम नगमा संगीतकार श्याम सुन्दर की पंजाबी फिल्म 'गुलबलोच' में गाया-जिसके प्राथमिक बोल थे, 'सोहनिये-हीरिये नी, तेरी याद ने सताया।' पूरे विश्व में प्रसिद्धी प्राप्त करने उपरांत भी उनकी जिंदगी में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार जैसे अवगुण दूर रहे। रफी की आवाज में सबसे बड़ा जादू यह था, कि वह पर्दे पर जिस अभिनेता को आवाज देते थे, वहीं उसी अभिनेता की लगती थी और ऐसे लगता था कि जैसे अभिनेता स्वयं पर्दे पर गा रहा है। मुहम्मद रफी अपनी गायन कला के धनी थे और हर प्रकार का गीत, गजल, पक्के राग, कव्वाली आदि गा सकते थे। वास्तव में कोई भी संगीतकार ऐसा नहीं था, जो रफी की आवाज के जादू में न डूब गया हो। फिल्म बसंत बहार से लेकर जंगली तक हाव-भाव और अदाएं शंकर जै किशन को मुहम्मद रफी से ही मिली थी। ''चाहे मुझे कोई जंगली कहेÓÓ गीत काफी सराहा गया था। ओ।पी.नैयर और एस.एन. त्रिपाठी भी हमेशा रफी के कायम थे। शास्त्रीय संगीत के आधार से तैयार हुई रफी की गायकी को नौशाद ने उत्तम ढंग से प्रयोग किया। नौशाद, मुहम्मद रफी और दलीप कुमार का सुरीला मेल एक लम्बे अरसे तक रहा। इन तीनों कलाकारों के मेल के चलते ही सिने दर्शकों को ''दीदार, आन, अमर, कोहिनूर, दिल दिया दर्द लिया, संघर्ष और राम और श्यामÓÓ जैसी फिल्में देखने को मिली। जब चांद तक पहुंचने का नम्बर आया तो, एस.डी.बर्मन ने मुहम्मद रफी को याद किया और एक गीत गाया। खोया-खोया चांद, खुला आसमान, आंखों में सारी रात जायेगी (काला बाजार) नशे में डूबकर गाने की बारी आई, तो रफी को ही बुलाना पड़ा। ''हम बेखुदी में तुम को पुकारे चले गये" उन्होंने ''गाईड" फिल्म के गीत गाये, ''क्या से क्या हो गया, प्यार में" और ''दिन ढल जाये, हाये रात ने जाये" आज भी लोगों की पहली पसंद है। दरअसल भारत में कोई भी ऐसा संगीतकार नहीं होगा, जो रफी की रसीली आवाज से प्रभावित न हुआ हो। यहां यह कहना उचित होगा कि इस संसार को मुहम्मद रफी जैसा समझदार और सुरीला गायक कई सदियों तक नहीं मिलेगा। आज मुहम्मद रफी को हमसे बिछड़े हुए तीस वर्ष हो गये हैं, परन्तु फिर भी रेडियो, टी.वी. और फिल्मों के माध्यम से उनकी मीठी और जादू भरी आवाज और मीठा संगीत सुनकर उनकी याद को ताजा करते हैं। -शशी बाला (प्रैसवार्ता)

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