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Monday, November 30, 2009

हरियाणा में बिगड़ रही है-कानून व्यवस्था

चंडीगढ़(प्रैसवार्ता) हरियाणा राज्य में निरंतर बिगड़ रही कानून व्यवस्था के चलते प्रदेश में हत्या, डकैती, लूट, फिरौती के लिए अपहरण जैसे अपराधों में वृद्धि हो रही है। राज्य सरकार ने गुडग़ांव उपरांत फरीदाबाद में पुलिस कमिश्ररी शुरू की है, मगर इसके बावजूद भी अपराध थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। बढ़ते अपराधिक ग्राफ से चिंतित मुख्यमंत्री चौ. भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने पुलिस को इस संबंध में संख्ती करने के आदेश दिए हैं। ''प्रैसवार्ता'' को मिली जानकारी अनुसार मुख्य मंत्री के गृह जिला रोहतक रेंज में 30 सितंबर 2009 तक 227 हत्याएं हो चुकी हैं-जबकि हिसार रेंज में यह आंकड़ा 174 है। रोहतक रेंज मे 34 डकैतियां पड़ी है-जबकि 157 लूट की वारदातें हुई है-वहीं हिसार रेंज में 17 डकैतियां तथा 76 लूट की वारदातें दर्ज की गई हैं। अम्बाला रेंज में 26 डकैतियां और 71 लूटपाट की घटनाएं, गुडग़ांव पुलिस कमिश्ररी में 14 डकैतियां व 107 लूटपाट की वारदातें हुई हैं। दुराचार के मामले में रोहतक जिला नंबर वन है-जिसमें 133, हिसार रेंज में 112, अम्बाला रेंज मे 107, रेवाडऱी रेंज में 65, गुडग़ांव पुलिस कमिश्ररी में 23 और फरीदाबाद कमिश्ररी में 23 मामले हुए हैं। बच्चों तथा अन्य के अपहरण के मामले में हिसार रेंज में 186, रोहतक रेंज में 177, अम्बाला रेंज में 121, रेवाड़ी रेंज में 89, फरीदाबाद कमिश्ररी में 61 तथा गुडग़ांव कमिश्ररी में 46 अपहरण दर्ज दिये गये। फिरौती के लिए अपहरण की रोहतक और रेवाड़ी रेंज में दो-दो, फरीदाबाद कमिश्ररी में तीन, गुडग़ांव कमीशनरी में एक तथा अम्बाला रेंज में तीन घटनाएं हुई हैं। वैसे राज्य में 31 अक्तूबर 2009 तक अपहरण की 816, हत्याओं की 800, दहेज के लिए हत्याओं की 234 तथा दुराचार की 502 घटनाएं पुलिस में दर्ज की हैं।

.....तो अब डायबिटीज को अलविदाई

चंडीगढ़(प्रैसवार्ता) पी.जी.आई. चंडीगढ़ में दो दिसंबर से इंसुलिन लेने वाले डायबिटीज के रोगियों का स्टेम सेल के माध्यम से उपचार शुरू हो रहा है। इस नई तकनीक से पहले चरण में 30 रोगियों का उपचार किया जायेगा, जिनका पंजीकरण हो चुका है। पी.जी.आई के एंडोक्राइनोलोजी विभाग के प्रमुख प्रोफेसर अनिल भांसली ने ''प्रैसवार्ता'' को बताया कि दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी व मुकाबला करने के लिए उनकी टीम तैयार है और आरंभ में एक सप्ताह के भीतर दो रोगियों का उपचार किया जायेगा। प्रथम दौर में 30 रोगियों के ही उपचार पर उन्होंने बताया कि दरअसल ऐसे रोगियों की निगरानी एक वर्ष तक रखी जायेगी और उसके बाद ही अगले चरण में उपचाराधीन रोगियों की संख्या बढ़ाई जायेगी। प्रोफैसर भांसली के अनुसार इस विधी से डायबिटीज के इलाज पर मात्र बीस हजार रुपये खर्चा आता है। उपचार दौरान रोगियों को तीन मास के लिए कुछ दवाएं दी जायेंगी और फिर बोनमैरो से स्टेम सेल निकाली जायेगी। स्टेम सेल निकालने उपरांत रोगी को अस्पताल में भर्ती कर एक दिन में पैन क्रियाज में स्टेम सेल से बनाया गया। इंजैक्शन लगाया जायेगा। यह स्टेम सेल वहां नई बीटा सेल विकसित करने में मददगार होगी, क्योंकि यही बीटा सेल इंसुलिन बनाती है। जिक्र योग है कि मधुमेह में बीटा सेल के नष्ट होने की वजह से ही इंसुलिन नहीं बन पाता है। दुनिया भर में स्टेम सेल को लेकर को बनी चुनौती, कहीं जरूरत से ज्यादा नई कोशिकाएं न बना दें, जो बाद में टयूमर का रूप लेकर नई समस्या उत्पन्न न कर दे, को लेकर कई शंकाएं भी हैं।

Thursday, November 26, 2009

हाये जिया रोय!!! हंसराज बहल

विशेषत: 15 अगस्त और 26 जनवरी पर और सभी-सभी रेडिय़ों पर मो. रफी का गाया जहां डाल-डाल पर सोने की चिडिय़ा करती है बसेरा वो भारत देश है मेरा 'सिकंदरे आजम' के राजेन्द्र कृष्ण के लिखे इस गीत के संगीतकार थे। 'हंसराज बहल' शायद इस गुणी संगीतकार का नाम भी लोगों को आज याद हो, पर 'मुहोब्बत जिन्दा रहती है मुहोब्बत मर नहीं सकती' (चंगेज खान) भीगा-भीगा प्यार का समां (सावन) जिंदगी भर गम जुदाई का मुझे तरसायेगा और चाहे दिन हो रात हम रहे तेरे साथ (मिस बॉम्बे) हाये जिया रोये (मिलन) आये भी अकेला जाये भी अकेला (दोस्त) आज भी लोगों के कानों में गुंजते रहते हैं। फिल्मों में स्वर्ण युग में नौशाद सी रामचंद्र, बर्मन, रोशन, मदनमोहन, शंकर जयकिशन, .पी. नैयर, रवि जैसे लोकप्रिय संगीतकारों के साथ हुस्नला भगतराम, बुलो सी रानी सरदार मलिक, एस. मोहिन्दर, एस.एन. त्रिपाठी, चित्रगुप्त नाशाद के साथ ही हंसराज बहल भी ऐसे ही गुणी संगीतकार थे, जिनकी फिल्में तो ज्यादा लोकप्रिय नहीं पर उन्हें गीत बहल ही लोकप्रिय हुए आज भी पुरानी पीढ़ी की जवान पर है। वे मग्र होकर आज भी रेडियो पर बड़ी तनमयता सुनते रहते हैं और सुनकर उन्हें एक सुखद आनंद की अनुभूति भी होती है। कुंदनलाल सहगत के गीतों पर निस्सिम प्रेम करने वाले हंसराज बहल का जन्म लाहौर में हुआ। गीत-संगीत में बचपन से रूचि थी। उम्र के साथ वे रूचि बढ़ती थी। उम्र के साथ वे रूचि बढ़ती गई। इसी संगीत का जुनून मुम्बई खेंच लाया। 2-3 वर्ष संघर्ष करने के बाद उन्हें पुजारी (1946) में संगीत देने का अवसर मिल गया। इसमें बाल कलाकार बेवी मुमताज ने अभिनय के साथ कुछ गीत भी गाये। भगवान मेरे ज्ञान के दीप जलादे बहुत ही लोकप्रिय हुआ। यह बेबी मुमताज कोई और नहीं सौंदर्य सम्राज्ञी अभिनय सम्पल अभिनेत्री मधुवाला थीं। जिसने बरसो लोगों के दिलों पे राज किया। उसके बाद चुनरिया (1948) में सावन आये रे जागे मेरे भाग सखी में जोहरा बाई और गीतादत्त के साथ आशा भोसले को पहिली बार गीत गाने का अवसर दिया और सिने जगत को एक प्रतिभाशाली उत्कृष्ट गायिका मिल गई। आशा उन दिनों अपना करियर बनाने के लिए संघर्ष कर रही थीं। उन दिनों आशा चिचपोकली की झोपड़ पटटी में रहा सकती थी। एक दिन हंसराज बहल उनस मिलने गये तो आशा के बाल बिखरे हुये थे, साडी भी ठीक नहीं पहिने थी और सर झुकाये घर में पोंछा लगा रही थी। हंसराज बहल उन्हें हस हालत में पहिचान नहीं सके और कहा जाओ आशा मेडम को बुलाओ आशा जी अंदर गई फ्रेश होकर अच्छे कपड़े पहिने अच्छे से बाल बनाये, चोटी डाली और बाहर आईं। हंसराज ने अब उन्हें पहिचान तो लिया था पर बिना कुछ कहे उन्हें 2-3 फिल्मों में गाने का ऑफर दे गये। सुरैया ने भी एक बाल कलाकार के रूप में नौशाद के संगीत निर्देशन से करियर शुरू किया था। बाद में हुस्नलाल भगतराम, अनिल विश्वास बुलो सी. रानी श्यामसुंदर आदि संगीतकारों ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया था, पर हंसराज बहल के संगीत में कभी बिगड़े किसी की मोटर रस्ते में (मोतीमहल) रस्ते में खड़े है हम (राजपूत) दर्दे दिल थाम ले (खिलाड़ी) तड़प ये दिल, सोजा मेरी लाड़ली (रेशमी) जैसे गीत गाकर उनके गीतों से गायन में निखार और दिन--दिन माधुर्य भी बढ़ता गया। अन्य में सब कुछ लुटाया हमने आकर तेली गली में। हाय चंदा हाये परदेस (चकोरी) शिकवा करेंगे (जेवरात) याद तुम्हारी क्यूं आये बालम (नखरे) तड़प ये दिल (शान) रफी जमाना दस-दस के दस नोट का (शान शमशाद) दिल देके बहुत पछताये (दोस्त)मीठी-मीठी लोरियां मैं धीरे-धीरे गार रे (अपनी इज्जत) मधुवाला जव्हेरी। नैनो की नगरी में आके चले जाना (पुजारी-अमीर बाई) चांद से प्यारे चांद हो (रात की नानी-लता-रफी) दिल है नादान जमानें (मस्तकलंदर आशा, तलत) भूलके कर बैठे सुहानी भूल (राजधानी-तलत-लता) रास्ते में खड़े हैं हम (राजपूत-सुरैया) गीतों ने कभी लोगों को लुभाया था। हंसराज, बहल के भाई गुलशन बहल भी एक फिल्म निर्माता थे। एन.सी. फिल्म की ओर से राजधानी, चंगेजाखान मिस बॉम्बे, मुड-मुड़ के देख, दारा सिंह, सिकंदरे आजम, आदि फिल्मों में हंसराज बहल के गीत बहुत लोकप्रिय हुए। अपने प्रिय गायक सहगत से अपने संगीत में गीत गवाने की बहुत इच्छा थी। हीररांझा फिल्म में सहगल गाने वाले भी थे, पर किस्मत को ये मंजूर था। इसी बीच सहगत का निधन हो गया। हंसराज बहल की ये हसरत दिल की दिल में रह गई पूरी हो सकी। 1970 के बाद नये संगीतकारों का साम्राज्य बढ़ता गया। संगीत और गीतों में माधुर्य कम हो गया और आर्केस्ट्रा के आक्रोश के बीच सुरीलापन कहीं खो गया। पुराने संगीतकार गीतकार और गायकों की इतने वर्ष साधना भंग होती दिखाई दी। पुरानी पीढ़ी के संगीतकार इस बदलते वातावरण से समझौता करने में असफल रह गये और पिछड़ते गये। 1983 में नूरजहां भारत आई तो उन पर बगुरवानंद हाल में विशाल स्वागत समारोह किया गया पर संयोजक इस गुणी संगीतकार को आमंत्रित करना भूल गये इसलिए वो बहुत ही विचलित हुए। जीवन के अंतिम दिनों में उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनकी अंतिम फिल्म थी (दो आंखे) इसमें मो. रफी ने कमल के फूल जैसा बदन तेरा चिकना गाया था। रफी साहब ने उनसे कोई मानधन तो लिया नहीं परउनकी आर्थिक मदद भी की। 20 मई 1984 को उनका निधन हो गया, पर आज भी हाये जिया रोये, जिंदगी भर गम जुदाई का मुहोब्बत जिंदा रहती है भीगा-भीगता प्यार समां, जहां डाल-डाल पर सोने की चिडिय़ा करती बसेरा लोगों के कानों में गूंजती रहती है। -मधु हातेकर, (प्रैसवार्ता)

दर्द का रिश्ता निभाने वाली कलाकार-मीना कुमारी

हिन्दी सिनेमा की एक बहुत बड़ी सुलझी हुई अदाकारा मीना कुमारी का जन्म 1935 में मास्टर अली बक्ष के घर हुआ। बक्ष भी अदाकारी करने के रसिया थे, परन्तु उन्हें फ़िल्मी जगत में असफलता का सामना करना पड़ा, जिससे उनका दिल टूट गया और परिवार गहरे आर्थिक संकट में फंस गया। परिस्थितियां ऐसी हो गई कि उन्हें अपनी साढे तीन वर्षीय बेटी मजहबी उर्फ मीना कुमारी को लेकर फिल्मों में काम ढूंढने के लिए एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो तक के चक्कर काटने पड़े। बक्ष की भाग दौड़ रंग लाई और मीना को निर्देशक विजय भट्ट की फिल्म ''लैदर फैस'' में बाल कलाकार के रूप में काम करने का अवसर मिल गया। इन फिल्म में मीना के अभिनय की भरपूर प्रशंसा हुई और धीरे-धीरे उसे उच्च फिल्मों में काम करने का निमंत्रण मिलना शुरू हो गया। चार से दस वर्ष की आयु आते-आते मीना ने बाल कलाकार के रूप में 8 फिल्मों में काम किया, जिसमें बहिन, कसौटी और प्रतिज्ञा इत्यादि प्रमुख थी। मीना को फिल्म जगत में लगातार काम मिलता रहा- जिससे परिवार की आर्थिक दशा में सुधार होता गया। बतौर सह नायिका भगरूर, सनम, पीया घर जा और बिछड़े बालक फिल्में कौन उपरांत 15 वर्ष की आयु में मीना की पहली फिल्म बतौर नायिका रिलीज हुई, जिसका नाम था, श्री गणेश महिला (1950) इसके बाद तो उसने ''फुटपाथ'', ''आरती'', ''दिल एक मंदिर'', साहिब-बीबी और गुलाम, बैजू बावरा, चिराग कहां, रोशनी कहां, शारदा, फूल और पत्थर जैसी फिल्मों की झड़ी लगा दी। ''पाकीजा'' में मुख्य भूमिका निभाकर मीना ने अपनी अदाकारी का शिखर दर्शकों के दिलों पर छाप बना दिया। 1951 में एक सड़क हादसे में मीना बुरी तरह घायल हो गई और उसे पांच मास तक अस्पताल में रहना पड़ा। इस दौरान फिल्म निर्देशक जनाब कमाल अमरोही ने उसकी देख भाल की, परिणाम स्वरूप दोनों में मुहब्बत हो गई और 4 फरवरी 1952 को दोनों विवाह सूत्र में बंध गए। इसके उपरांत मीना कुमारी ने और ज्यादा परिश्रम किया और ''बंदिश'', परिणीता, जहारा, कोहिनूर, नौ लक्खा हार, किनारे-किनारे जैसी फिल्में हिन्दी सिनेमा जगत को दी। फिल्मों में मीना निरंतर सफल जरूर होती गई, परन्तु विवाहिता जीवन में असफलताएं निरंतर पीछा करती है। स्थिति ऐसी बन गई कि पति-पत्नी के अलग होने की नौबत गई और 5 मार्च 1964 को दोनों अलग-अलग हो गए। जिंदगी के गमों को भूलने के लिए मीना ने शराब पीनी शुरू कर दी। इसी बीच उसकी मित्रता गुलजार, धमेन्द्र सादन कुमार से भी हुई, मगर सच्चा प्यार किसी से नहीं मिला। सच्चा हमदर्द सच्चा साथी तलाश कर रही मीना कुमारी ने 31 मार्च 1972 को मौत को गले लगा लिया। कठिनाईयों से जिंदगी शुरू करने वाली और कठिनाईयों से ही जिंदगी समाप्त करने वली थी, महान कलाकार मीना कुमारी, जो आज भी अपने प्रशंसकों के बीच स्थान बनाए हुए है। परमजीत सिंह (प्रैसवार्ता)

नींबू एवं उसके फायदे

नींबू का प्रयोग हर मौसम में हर दष्श्टि से उपयोगी है नींबू के प्रयोग और लाभ हम नीचे दे रहे हैं मुहांसे:- एक तोला मलाई में चैथाई नींबू डालकर मले रंग साफ करेगा, मुंहासों की कील मुलायम करके निकाल देगा। उल्टी:- गुनगुने पानी में आधा नींबू एक छोटी इलायची डालकर तीन-तीन घंटे में पिलाने से लाभ होगा। टायफाईड:- तेज ज्वर के कारण पेट में दवा पानी कुछ रूक रहा हो ऐसी स्थिति में भी चाय के पानी में दूध के स्थान पर नींबू डालकर पिलाने से लाभ होगा। गैस पेटदर्द:- गैस बन रही हो तो हल्के गुनगुने पानी में एक नींबू निचोड़ कर फिर खाने का सोडा चैथाई म्मच डालकर एकदम पी जायें, लाभ होगा साधारण पेटदर्द में जरा सी अजवायन और काला नमक ताजे पानी में डालकर नींबू निचोड़ कर पानी पीने से लाभ होगा। मोटापा:- मोटे आदमी सुबह को निराहार मुंह ताजे पानी में एक चम्मच षहद के साथ एक नींबू निचोड़ कर पानी का सेवन करें तो लाभ होगा। कब्ज:- रोज सुबह उठ कर पहले ताने पानी में एक या आधा नींबू डालकर पीने से पेट साफ हो जायेगा। सिर की रूसी:- बालों में कपास रूसी हो जाने पर नारियल के तेल में नींबू डालकर बालों की जड़ों में लगाए, लाभ होगा। सौंदर्य के लिए:- थोड़ी सी ग्लिसरीन में एक नींबू और थोडा गुलाबजल मिलाकर रख लें। रोज रात को सोते समय मुंह धोकर थोडा सा लोषन हाथ पर लेकर मुंह पर अच्छी तरह मल ले रंग में निखार आयेगा एवम् सौंदर्यवर्धन में लाभकारी होगा। तिल्ली:- एक नींबू प्रतिदिन नमक से खायें, लाभ होगा। मुंह की बदबू:- गुनगुने पानी में नींबू निचोडकर कुल्ला करने से बदबू खत्म हो जायेगी। दांत मजबूत होंगे। खूनी बवासीर:- नींबू को बीच से काटकर उस पर कत्था पीसकर अच्छी तरह लगा दें। सुबह उठकर दोनों टुकड़े चूस लें। लाभ होगा। -प्रैसवार्ता

उम्र की दहलीज पार करने के बाद स्त्री

हर नारी के जीवन में एक बसंत ऋतु आती है, पतझड़ का संदेश लेकर। तब नारी का जननी रूप तिरोहित होने लगता है। और उसके भीतर दवि उभरती है। एक प्रौढवंय माता की विज्ञान की भाषा में इसे रजोनिवृति कहते है। उम्र की इस दहलीज को पार करने के बाद नारी गर्भ धारण करने में असमर्थ हो जाती है। इसे लगता है कि जैसे प्रकृति ने उसका समस्त आकर्षण एक बारगी छीन लिया हो। रजोनिवृति की दशा में अंडाशय में अंणाणु का निर्माण बंद हो जाता है और महिलाएं चाह कर भी गर्भ धारण नहीं कर सकती। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि राजनेनिवृति के लिए जिम्मेवार है एस्ट्रोजेन नामक हार्मोन के स्राव में होने वाली कमी पिछले दशक तक यह माना जाता था कि एस्ट्रोजेन केवल एक मादा जनन हार्मोन है, जो यौन उतकों, मुख्य रूप से हाइपोथैमेलेस, बाहरी प्रमस्तिष्क, स्तन ग्रंथियों, गभ्राश्य, यौन आदि को हि नियप्त्रित करता है। पर नवीनतम शोध निष्कर्षों से पता चलता है कि एस्ट्रोजेन भले ही मुख्य रूप से एक जनन हार्मोन हो, पर उसके कार्यक्षेत्र में बहुतेरी गतिविधियां आती है, उदाहरण के लिए मूत्र-विसर्जन, पोषक तत्व का अवशोषण एवं उपापचय अस्थि एवं खनिज उपापचय, रक्तचाप एवं हृदय की कार्यप्रणाली याद्दाशत एवं सज्ञानता, जीवन में एक अंतनिहित एक खाय लय एवं लत आदि एस्ट0ोजेन के ही प्रभाव क्षेत्र मेंं होने वाली कमी ने केवल मादा जननतन्त्र के समाथ्र्य का अपहरण कर लेते है, बल्कि शरीर क्रिया प्रणाली की व्यापक रूप से प्रभावित भी करती है। रजोनिवृति के उपरांत न तो अंडाशय में अंडाणु बनते है, न ही एस्ट0हायल या प्रोजेस्टरॉन का संश£ेषण ही होता है। इनिहिबिन ग्लाईको प्रोटीन भी रक्त से गायब होने लगता है। शरीर में होने वाले परिवर्तन को भापॅकर बाह्य प्रमस्तिष्क ग्रंथियां हरकत में आती है तथा फॉलिकिल स्टिमुलेटिंग हार्मोन एवं ल्युटिनाईजिंग हार्मोन का भरपूर स्राव होने लगता है। यही कारण है कि 40-50 के की उम्र में, जब मासिक स्राव जारी रहता है, फॉलिकिल स्टिमुलेटिंग हार्मोन का स्राव बढ़ जाता है, ल्युटिनाईजिंग हार्मोन का चिकित्सा जगत में यह धारण प्रचलित रही है कि रजोनिवृति अंडाशय के अंडाणु के अंडाणु उत्पादन क्षमता के चुक जाने का परिणाम पात्र है। पर अब वैज्ञानिकों के बीच यह विवाद का विषय है कि रजोनिवृति को आमंत्रण देने में अंडाशय एवं हाइपोथेनेमस पीयूष ग्रंथियों की जिम्मेवारी कितनी है। चिकित्सा विज्ञानियों का एक वर्ग कहता है कि रजानिवृति उसके बाद होने वाले मानसिक उतार-चढ़ाव अंडाशय में होने वाले परिवर्तन के परिणाम मात्र है। पर वैज्ञानिकों का दूसरा वर्ग मानता है कि रजोनिवृति केन्द्रीय सा्रयुतंत्र में होने वाले परिवर्तन का परिणाम है। यही परिवर्तन नारी के गर्भ धारण करने की क्षमता को भी प्रभावित करता है। चाहे जो भी हो, रजोनिवृति नारी के जीवन में एक नया मोड़ लेकर आती है। उसके शरीर में परिवर्तन का एक चक्र शुरू हो जाता है। इस समय वह भावना के एक झानावत में फंसी होती है। कभी उसे अपनी स्वरूप दिव्य एवं उज्जाला नजर आता है तो कभी अपने को लुष्ठिता से अधिक आंकती इस अवस्था में महिलाएं चिड़चिड़ी हो जाती है, ईष्यार्लु हो जाती है। आमतौर से महिलाओं में से परिवर्तन रजोनिवृति की शुरूआती दौर में ही परिलक्षित होते है, पर कुछेक स्ऋियों की तो यह जीवन पद्धति ही बन जाती है। रजोनिवृति को टालने के अनेक प्रयास किए गए है। कभी एस्ट्रोजेन को सेवन कराकर तो कभी विटामिन की गोलियां पकड़ा कर। पर अभी तक इसमें कोई कामयाबी नहीं मिली है। -मनमोहित (प्रैसवार्ता)

हृदय रोगों हेतु लाभकारी है पुदीना

हरी सुगन्धित पत्तियों वाले पुदीने से कौन परिचित नहीं है। गर्मी शुरू होते ही पोदीने की बहार जाती है। पोदीने में विटामिन ,बी,सी,डी, और के अतिरिक्त लोहा, फास्फोरस और कैल्शियम भी प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। गर्मी में पोदीने का उपयोग बहुत लाभकारी होता है। पोदीना पाचक होने के साथ-साथ गर्मियों में ताप से बचाव करता है। पोदीने के पत्तों का रस, अर्क और तेल काम में लिया जाता है। इसकी तासीर ठंडी होती है। पोदीना उदर रोगों के लिए भी लाभकारी होता है। छोटी-छोटी पत्तियों वाला पोदीना खुशबुदार होता है। जुकाम, खांसी, दमा, अजीर्ण, अफारा, उदरशूल, अतिसार है तथा कृमियों का नाश करने वाला होता है। पोदीने की पत्तियों को पीसकर चेहरे पर लेप करने से मुंहासे तथा दाग धब्बे दूर होते है। पुदीने का रस एक चम्मच, शहद 2 चम्मच, नींबू का रस एक चम्मच मिलाकर पीने से पेट की गैस तथा वायु पीड़ा दूर होगी। पोदीने की पत्तियों को पानी में उबालकर पानी ठंडा कर कुल्ला करने से मुंह की दुर्गन्ध दूर होगी तथा मुंह में ताजगी आएगी। अंजीर के साथ पोदीने के पत्ते खाने से हिचकी बंद होती है तथा सीने में जमा हुआ बलगम साफ हो जाता है। पोदीने की पत्तियों को पानी में उबालकर भाप लेने से सर्दी- जुकाम में लाभ होता है। विषैले जीव ने जिस अंग पर डंक मारा हो, वहां पुदीना पीसकर लेप करें पुदीना 10 ग्राम तथा लाल शक्कर 20 ग्राम पानी में उबालकर पिलाने से रोग दूर हो जाता है। पोदीने के पत्तों का रस पिलाने से हैजा, दस्त तथा उल्टी में तुरंत लाभ होता है। पुदीने की लुगदी घाव पर लगाने से घाव जल्दी ठीक हो जाता है। जी मितलाने पर पुदीना पीसकर नींबू का रस तथा काला नमक मिलाकर खाने से लाभ होता है। नकसीर आने पर ठंडे पानी में पोदीने की अर्क डालकर पिलाएं। पुदीने की चटनी का नियमित सेवन करने से भूख खुलकर लगती हैं। -वंश जैन 'प्रैसवार्ता'

जहां सात पीढिय़ों से नहीं पी जाती शराब

चंडीगढ़ (प्रैसवार्ता) दक्षिणी हरियाणा के नांगल चैधरी के ग्राम मौरूढ़ में ग्राम वासियों ने सात पीढिय़ों से शराब को हाथ तक नहीं लगाया है और शराब को छूना भी पाप समझा जाता है। वर्तमान में जब शराब का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है, मगर गुर्जर बाहुल्य के 3200 आबादी वाले इस ग्राम में लगभग सभी बिरादरी के लोग होते हुए भी इस ग्राम में जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कहीं नौकरी कर रहा है या फिर बड़े पद पर कार्यरत है, शराब का सेवन नहीं करता। ग्राम वासी प्रहलाद सिंह ने ''न्यूज प्लस'' को बताया कि प्राचीन समय में इस ग्राम में आत्मा राम महाराज रहते थे और उनकी प्रेरणा का प्रभाव है कि उनके वचन मुताबिक उस समय से ही शराब न पीने की प्रथा चली आ रही है। विवाह षादी इत्यादि समारोहों में इस ग्राम में जन्मे लोग भिन्न-2 समुदायों के होने के बावजूद भी ग्राम में बनी महाराज आत्मा राम की समाधि पर सारी रस्में रिवाज करते हैं। प्रहलाद सिंह के मुताबिक ग्राम में आने वाले मेहमानों को दूध व खीर खिलाई जाती है।

क्या होता है मिनरल वाटर

हाल के वर्षों तक भारत में मिनरल वाटर का इस्तेमाल सिर्फ धनाढ्य या अपनी सेहत के प्रति जागरूक लोग ही किया करते थे। अब स्थिति ऐसी नहीं है। आज मिनरल वाटर का इस्तेमाल हर छोटी बड़ी जगह पर होने लगा है। अंतराष्ट्रीय पैमाने के अनुसार मिनरल वाटर ऐसा पानी है, जिसे उसके स्त्रोत पर ही बोतल बंद किया जाता है। कुछ परिस्थतियों को छोड़कर इस पानी के किसी भी तरह के उपचार की आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी इस पानी में से आयर और सल्फर निकालने के लिए इसे छाना जाता है। मिनरल वाटर को पाश्चराइज्ड नहीं, किया जाना चाहिए। इस शुद्ध करने के लिए अल्ट्रावायलेट तरंगों का इस्तेमाल या फिर अन्य कोई रासायनिक क्रिया अपनाई जानी चाहिए सके अलावा इस जल की अपनी भगर्भीग स्त्रोत से निकालने के बाद उसके प्राकृतिक बहाव में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए। 1996 में अमेरिका मे निर्धारित किए गए बोतल बंद पानी से मानक और यूरोप मानकों के अनुसार मिनरल वाटर को कुछ श्रेणियों में विभक्त किया गया है। हल्की श्रेणी में मिनरल वाटर, मे प्रति लीटर 500 ग्रा या उससे कुछ कम पूर्णत घुलनशील खनिज 500 से 150 मिली ग्राम तक प्रति लीटर पाया जाता है। जबकि उच्च श्रेणी के मिनरल वाटर में घुलनशील खनिज प्रति लीटर 1500 मिलीग्राम से ज्यादा होता है। दुर्भाग्य से हमारे देश में मिनरल वाटर शब्द का भरपूर दुरूपयोग किया जा रहा है। तमाम कंपनियां बोतल बंद पानी के उपर मिनरल वाटर का स्टीकर चिपका कर उसे बेच रही है। जबकि यह पानी मिनरल वाटर होकर संबधित या प्रोसेस्सड पानी है। जिसे शुद्ध करने के लिए रासायनिक प्रक्रियाएं अनपाई जाती है। स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का दौर शुरू होने से पहले भारतीय अपनी मजबूत प्रतिरोधी क्षमता का दंभ करते थे और शुद्ध जल जैसी चीज पर खर्च करने का मजाक उड़ाते थे। आज वह तभी मिनरल वाटर के लिए राजी हुए है। क्योंकि पूरी दुनिया में यह माना जाने लगा है कि मिनरल वाटर सेहत के लिए अच्छा है। हालांकि तमाम ऐसे उपभोक्ता मौजूद है, जो पढ़े लिखे होने के बावजूद खनिजों के बारें में सही जानकारी नहीं रखते। खनिज बहुत कुछ विटामिन की तरह से होते है, जिनका उपयुक्त मात्रा में सेवन से अच्छी सेहत के लिए जरूरी होता है। वास्तव में शरीर में पानी का संतुलन और अन्य महत्वपूर्ण शारीरिक क्रियाएं खनिज पर ही निर्भर करती है। उदाहरण के लिए यूरोप में इलाज और सौन्दर्य की दृष्टि से खनिज जल का उपयोग किया जाता है। संजय जिंदल ''प्रैसवार्ता''

रोचक है बटन की दुनिया

कपड़ों की दुनियां की शान बटन का पहली बार प्रयोग 13वीं शताब्दी में किया था, जबकि उससे पूर्व कपड़ों को आवश्यकता अनुसार किसी चीज में लपेटकर गाऊन की तरह बांधा जाता था। शुरूआत में बटन का प्रयोग अमीर और राजघराने से संबंध रखने वाले लोगों ने किया, क्योंकि उस समय बटन सोने-चांदी या हीरे-जवाहरात से बने होते थे। बताया गया है कि महारानी एलिजाबेथ को बटनों का इतना शौंक था कि वे अपने सोने के गहनों को पिघलाकर बटन बनवा लिया करती थी। स्काटलैंड की रानी मैरी के पास हीरे जवाहरात जड़े 400 बटन थे, जिनके बीचों बीच एक-2 लाल जड़ा हुआ था। डयूक ऑफ बरमिंघम के बटन हीरों के होते थे, जो कपड़ों में इस तरह टंके होते थे, कि बार-2 टूटकर गिर जाया करते थे। फ्रांस के सम्राट लुई चैदहवें ने, तो छह बटनों के सैट की कीमत पौने चार लाख चुकायी थी। धागे के बटन की शुरूआत 1700 से हुई, जबकि 1840 में ठोर रबड़ से बटन बनने लगे, जो अलग अलग प्रकार के होते थे और कई बार इनमें षीषे का प्रयोग भी किया जाता था। 19वीं शताब्दी में बिजली से चलने वाली मषीने बन गई और पीतल के साथ-2 प्लास्टिक, मोती, चमड़े, लकड़ी, सीप आदि के बटन बनाये जाने लगे। यह भी श्चर्यजनक है कि डाक टिकटों की तरह कुछ लोगों को बटन इका करने का शौक होता है, जो अमेरिका में काफी लोकप्रिय है, जहां कई शौकीन एक-2 बटन को हासिल करने के लिए लाखों रूपये तक खर्च कर देते हैं। -मनमोहित, प्रैसवार्ता

30 के बाद नो प्रोब्लम

30 से अधिक उम्र की महिलाएं क्यों हमारे लिए सम्माननीय होती हैं आइए जाने:- 30 से अधिक की महिलाएं गरिमा से भरपूर होती हैं। वे कभी कभार ही सिनेमा या किसी महंगे रेस्तरां में आपके साथ एक मनोरंजक जोड़ी बनाती हैं। उम्रदराज महिलाएं प्रषंसा से भरपूर व विनम्र होती हैं। वे जानती हैं कि क्या प्रषंसनीय है, क्या नहीं। 30 से अधिक की महिलाओं को इतना विष्वास होता है कि वह अपनी सहेलियों से आपको परिचित करवाती हैं। 30 से अधिक की महिला इस बात पर कम ही ध्यान देती है कि आप उसकी सहेलियों की ओर आकर्शित हो रहे हैं, क्योंकि वह जानती हैं कि उसकी सहेलियां उसे धोखा नहीं देंगी। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, महिलाएं आर्कशक होती जाती हैं। आप कभी भी अपने पापों को उनके सामने प्रकट न करें। वे हमेषा जानती होती हैं। 30 से अधिक की महिला चमकदार लाल लिपस्टिक लगाये अच्छी दिखती हैं। जब आपके चेहरे पर पहली झुर्रिया उभरती हैं, तो 30 से ऊपर की महिला किसी लड़की से अधिक सैक्सी होती है। उम्रदराज महिलाएं स्पश्ट तथा ईमानदार होती हैं। यदि आप कोई चालाकी करते हैं, तो वे हमेषा आप को पकड़ लेती हैं। (प्रैसवार्ता)

एक दवाई भी है तुलसी

साधारण हिन्दु परिवारों में तुलसी पूजनीय मानी जाती है और धार्मिक कार्यों में इसका प्रयोग होता है। तुलसी में औशधीय गुण भी है। तुलसी के पत्तों का अर्क प्रतिदिन पीने से षरीर की वादी कम होती है।
नकसीर की शिकायत में तुलसी का रस नाक में डालने या सुंघने से लाभ होता है, जबकि मच्छरों से भी तुलसी मदद करती है। रात को सोने से पूर्व तुलसी का रस कपड़े में छानकर षरीर पर मलने से मच्छर पास नहीं आते।तुलसी के पांच-सात पत्तों और काली मिर्च को पीसकर एक गिलास पानी के साथ प्रतिदिन पीने से दिमाग की फालतू गर्मी शांत होती है, मांसपेषियां और हड्डियां मजबूत होती हैं। तुलसी के बीज दूध में उबालकर शक्कर मिलाकर पीने से ताकत बढ़ती है।
तुलसी के पत्तों को क्कर के साथ चबाने से पतचिस में लाभ होता है।
बिच्छु, भोरिया, टांटिया इत्यादि के काटने पर तुलसी के पत्तों का रस काटने वाले स्थान पर लगाने से जलन समाप्त हो जाती है।
छाती पर कफ जमा होने से कपूर, षहद और तुलसी मिलाकर रात को सोने से पहले प्रयोग करें।
दांत दर्द की शिकायत में तुलसी पत्ते पीसकर उसे दर्द वाले दांत के नीचे दबाने से लाभ मिलेगा।
यदि गले में खराश हो, तो तुलसी की पत्तियां और अदरक पीसकर शहद के साथ चाटने पर खराश ठीक होती है।
प्रतिदिन लगातार भोजन उपरांत तुलसी की कुछ पत्तियां पानी के साथ लेने से पुरानी से पुरानी कब्ज समाप्त होगी। तुलसी की पत्तियों का रस गर्म करके चार बूंदे कान में डालने से कान दर्द बंद हो जाता है। यदि कान बहता हो, तो कई दिन नियमित रूप से तुलसी रस डालें। -जसप्रीत सिंह(प्रैसवार्ता)

सौ वर्ष से किसी ने नहीं पी शराब

मंदसौर (प्रैसवार्ता) मध्यप्रदेष के मंदसौर जिला में एक ऐसा ग्राम भी है, जहां अपराध होने उपरांत पीडित को न्याय प्राप्ति के लिए न्यायिक प्रक्रिया की प्रतीक्षा नहीं करनी पडती। इस ग्राम में महादेव मंदिर का दरवाजा खुलते ही पीडित को न्याय मिल जाता है और दोशी को सजा। इस ग्राम की विषेशता है कि आज तक यहां का एक भी मामला अदालत तक नहीं पहुंचा और न ही करीब सौ वर्श से किसी ने षराब, मांस का सेवन किया है। इस ग्राम के लोग अपनी बेटी का रिष्ता भी इस षर्त पर करते हैं कि उनका दामाद या अन्य रिष्तेदार षराब पीकर इस ग्राम में नहीं आयेगा। सवासरा के निकट ग्राम ढाबला महेष में लगभग एक हजार वर्श पुराने महादेव मंदिर के सामने बर्जुग पंचायत बैठती है और मिन्टों में ही झगड़े का निपटारा हो जाता है। अपराधी षपथ उठाता है और मंदिर का दरवाजा खोलता है। यदि उसने अपराध किया हो, तो वह स्वीकार कर लेता है। ज्यादातर अपराधी तो पंचायत बैठने से पूर्व ही भागकर ग्राम छोड़ जाते हैं। महादेव की षपथ का उल्लंघन आज तक ग्राम के किसी भी व्यक्ति ने नहीं किया। पंचायत का निर्णय पूरा ग्राम मानता है।

पक्षी जो सिर्फ किताबों में है

दुनियां में भांति-भांति के रंग बिरंगे और खूबसूरत पक्षी हैं, लेकिन कई पक्षी ऐसे भी रहे हैं, जिन्हें हम अब केवल किताबों में ही देख सकते है, क्योंकि स्वार्थी मनुश्य की वजह से वे हमेषा के लिए इस दुनिया से विलुप्त हो गये हैं। प्राणीषास्त्री विलुप्त पक्षियों की श्रेणी में डोडो, माओ, राक जैसे पक्षियों को मिल करते हैं। इन पक्षियों के विशय में वैज्ञानिकों द्वारा दी गयी जानकारियों का ब्यौरा बड़ा ही रोचक है। डोडो मारीषस में पायी जाने वाली एक भोली भाली और भारी भरकम चिडिया थी। सन् 1507 में जब पुर्तगाली इस द्वीप पर पहुंचे, तो उन्होनें इसका नाम डोडो रखा वास्तव में डोडो एक पुर्तगाली षब्द है, जिसका अर्थ होता है मूर्ख। अपने नाम के अनुरूप डोडो व्यवहार करती थी। वह षत्रुओं से अपना बचाव नहीं कर पाती थी। मूर्ख और स्वभाव से आलसी इस पक्षी का पुर्तगाली आसानी से षिकार कर लेते थे इसलिए पुर्तगालियों के मनपंसद व्यंजनों में डोडो का मांस मुख्य था। डोडो एक बड़े मुर्गे के आकार का पक्षी था, जिसका एक नहीं कई दुम होती थी। रंग बिरंगे डोडो जब झुंड बनाकर लुढ़कते गिरते चलते थे, तो लोग उन्हें देखकर खूब हंसते थे। कुछ प्राणीषास्त्रीयों का मानना है कि पहले डोडो पक्षी भी उडना जानते रहे होंगे। किंतु कुछ परिस्थितिजन्य कारणों से वे षायद उडऩा भूल गये हैं। उनका आलसी स्वभाव और उडन षक्ति का अभाव ही उनके लिए विनाष का कारण बन गया, क्योंकि इन कारणों से वे आसानी से कुत्ते बिल्लियों के हाथ लग जाते थे। इस तरह 1640 तक डोडो पूरी तरह विलुप्त हो गये। 1638 को इसे आखिरी बार लंदन में देखा गया था, इसके बाद यह जीता जागता पक्षी इतिहास बन गया। विलुप्त होने वाले दूसरे पक्षियों में मोआ भी एक है। मोआ पक्षी पहले न्यूजीलैंड की हरी भरी धरती पर बसते थे। सोलहवीं षताब्दी में जब मनुश्य के कदम इस धरती पर पड़े तो इन पक्षियों पर आफत पड़ी। मोआ कुछ-कुछ मौजूद षतुरमुर्ग और एमु से मिलते जुलते थे। मोआ अपने विषाल आकार के कारण अपनी मजबूत टांगों के बल पर काफी तेज गति से भाग सकते थे। पक्षियों में आपसी भाईचारे की भावना भी थी। तीसरी विलुप्त प्रजाति मेडागास्कर का राक पक्षी था, जिसकी ऊँचाई 12 फीट तक होती थी। ये पक्षी मेडागास्कर द्वीप के पक्षीराज कहलाते थे। राक पक्षी को मेडागास्कर वासी इसे हाथी पक्षी भी कहते थे। सुप्रसिद्ध मार्को पोलो ने इस पक्षी को मनुश्य के दुगने कद का बताया है। मेडागास्कर की लोककथाओं में इस पक्षी का काफी वर्णन है। कथाओं के अनुसार पहले ये हाथी पक्षी उड़ते थे। यहां के निवासी इन्हें षैतान की आत्मा मानते थे और इनकी पूजा करते थे। लेकिन मार्को पोलो के अनुसार यह पक्षी उडने में असमर्थ थे। माना जाता है कि इस पक्षी का एक अंडा एक फीट तक लंबा होता था और उसमें दो गैलन तक पानी सकता था, यह प्रकृति की एक अद्धभुत रचना थी। मोआ, डोडा और राक तीनों पक्षी मनुश्य के क्रूर अत्याचारों की वजह से इस पष्थ्वी से विलुप्त हो गये इन तीनों पक्षियों का आकार प्रकार के कारण प्रकष्ति में विषिश्ट स्थान था। हालांकि पक्षियों को कई और भी प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कई खत्म होने के कगार पर हैं। दुनिया में भांति-भांति के रंग बिरंगे और खूबसूरत पक्षी हैं, लेकिन कई पक्षी ऐसे भी रहे हैं, जिन्हें हम अब केवल किताबों में ही देख सकते हैं क्योंकि स्वार्थी मनुश्य की वजह से वे हमेषा के लिए इस दुनिया से विलुप्त हो गये हैं। प्राणीषास्त्री के विशय में वैज्ञानिकों द्वारा दी गयी जानकारियों का ब्यौरा बड़ा ही रोचक है। - चन्द्र मोहन ग्रोवर (प्रैसवार्ता)

असतो मा सदगमय: तमसो मा ज्योतिर्गमय

भारत में अतिप्राचीन व महान संस्कृति को जीवित रखने वाले त्यौहारों की श्रृंखला में दीपावली पर्व का अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है। यह पर्व न सिर्फ हमारे देश भारत में बल्कि समूचे विश्व में अलग-अलग नामों से तथा अपने-अपने सुंदर ढंग से मनाया जाता है। कार्तिक मास की अमावस्या को प्रतिवर्ष करोड़ों भारतीय असख्ंय नन्हें दीप प्रज्जवलित करके अंधकार को चुनौती देते हैं। जगमगाती दीपावली में दीपमालिका की आभ असतो मा सदगमय तमसो मा त्योतिर्गमय का वैदिक संदेश स्मरण करते हुये असत्य से सत्य की ओर तक से प्रकाश की ओर अज्ञान से ज्ञान की ओर दृढ़तापूर्वक कदम बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। प्रकृति का नियम है कि समाज के कल्याण के लिए जो अपना बलिदान देते हैं वह सदेव दीपक के उज्जवल धवल प्रकाश की तरह अमर होकर जगमगाते हैं और जो समाज को क्षति (हानि) पहुंचाने के लिए भभकते हैं वह आग की तरह बुझा दिये जाते हैं। दीपावली प्रकाश पर्व इन्ही पुनीत भावनाओं व अंधकार निराशा के बीच प्रकाश एवं सत्यसाहस की प्ररेणा पुंज तथा त्याग बलिदान का स्मरणीय प्रतीक पर्व है। ''बने बाती सा यह तन मेरा, रहे तेल जैसा ये मन मेरा, जलू और जग को प्रकाश दूं, दिये जैसा हो जीवन मेरा दीप+आवली (दीपावली) वास्तव में दीपक तेल और बाती की अनूठी एकता और उनके पुण्य बलिदान का प्रतीक स्मरणीय पर्व होने के साथ-साथ असत्य और अज्ञान रूपी अंधकार पर सत्य और ज्ञान रूपी प्रकाश की जय विजय का पर्व भी है। दीपावली के रिमझिमाते झिलमिलाते प्रकाश में अनेक गूढ़ अर्थ प्रकाशित होकर चमकते हुए समाज व राष्ट्र को निरंतर नई पे्रेरणा चेतना व शिक्षा प्रदान करते हैं, जिस प्रकार दीपक एक अकेला होकर भी समस्त प्रकार के अंधकार को काल का ग्रास बना लेता है और अपने प्रकाश द्वारा जग को प्रकाशित कर बुझने के उपरांत भी इतिहास में महाभारत के कुमार अभिमन्यु की भांति अमरत्व प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार हमें भी समाज की अनेक प्रकार बुराईयां अधिकार को दीपक की भांति ज्ञान, बल की शक्ति से निर्भय निर्बाध गति से समाप्त करना चाहिए, राष्ट्र में छायी यह बुराई रूपी घनघोर काली अमावस्या जिस दिन हमारी दीपक तेल बाती की अटूट एकता व उनके बलिदान की तरह हमारे राष्ट्रीय त्याग संघर्ष रूपी दीपक के प्रकाश से भस्म हो जाएगी, उसी दिन दीपावली और उसकी सार्थकता सच्चे अर्थों में सिद्ध होगी, लेकिन तब तक। ''सदभावों के फूलों को मुरझाने से बचाये रखिए, खंडित ना हो मानवता, एक दीप जलाये रखिए।-विशाल शुक्ल ऊँ (प्रैसवार्ता)

आज की फिल्मों में भारत कहां है?

प्रोफेसर एम. के राय अमरावती विद्यापीठ में बाये टेक्रालॉजी के विभागाध्यक्ष हैं। उन्होंने ही एक दिन प्रश्र किया कि आज की फिल्मों में भारत नहीं दिखता। आज की फिल्में या तो अरब पतियों के युवाओं के प्रेम प्रसंग दिखाती हैं या प्रवासी भारतीयों की समस्यायें। मनोज कुमार यद्यपि बहुत अच्छे अभिनेता नहीं रहे पर उनकी फिल्मों में नायिकाओं के देहयष्टि के साथ-साथ कृत्रिम गांव और खेत तो होते थे, हालांकि उनकी फिल्में, 'मदर इंडिया' या 'नया दौर के मुकाबले में खड़ी नहीं होती थी, पर उन्होंने फसलों से पैसा बहुत पैदा किया। उन्होंने भारतीयों के रगों में दौड़ती आरतियों को फिल्मों में दौड़ा कर परदे में से पैसा खींचा। फिल्मों में भारतीयता कृत्रिमता से नहीं देखी जा सकती, उनमें भारतीयता तो प्रेमचंद की कहानियों को या शरत् चंद के उपन्यासों को फिल्माकर ही देखी जा सकती हैं। अत: दो बीघा जमीन, छोटी बहू, शतरंज के खिलाड़ी, कफन इत्यादि में भारतीयता परिलक्षित होती है। श्याम बेनेगल इत्यादि ने शबाना आजमी, स्मिता पाटिल इत्यादि नायिकाओं के निर्वस्त्र उभारों को ही भारतीयता समझा। साथ में गरीबी, विवशता ही उनकी नजरों में भारतीयता रही। उनकी फिल्मों में एक अमरीश पुरी (दुष्ट आदमी) रहता था एक नसीरुद्दीन शाह या ओम पुरी (गरीब एवं असहाय आदमी) रहता था और एक स्मिता पाटिल या शबाना आजमी रहती थी, बाकी कहानी आप खुद बना सकते हैं। आज भी लगभग 63 प्रतिशत गरीब हैं और गांवों में रहते हैं। मगर फिल्मों में हर भारतीय परिवार सम्द्ध दिखाया जाता है। उन फिल्मों की मुख्य समस्या लड़कियों के लिए वर ढूंढना नहीं, बल्कि प्रेमरत युवाओं की शादी है। आज के फिल्मकारों को भारत का मतलब शहरी झुग्गी झोपडिय़ां हैं। उनका संघर्ष करके समृद्ध दिखाना एक धनात्मक सोच है, क्योंकि अंग्रेजी साहित्य की कहानियां जहां दुखांत होती थीं वहीं भारतीय साहित्य में कहानियां सुखांत होती हैं। (दे लिव्ड हेप्पीली एवर आफटर) यह सही है कि मुक्त अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चलते भारत चका चौंध में जाग रहा है और अमीर बनने का संघर्ष फिल्मों में हमें आंशिक भारतीयता के दर्शन होते हैं, पर फिल्मों में गांव बनाम शहर या गरीब बनाम अमीर कम ही दिखते हैं। इस प्रक्रिया में फिल्मकारों की विवशता अधिक है। भारतीय फिल्में अब विदेशी दर्शकों को नजर में रखकर अधिक बनाई जाती हैं, क्योंकि अब कृत्रिम भारत ही उनका खरीद दार है। सी.डी. गरीब लोग तो खरीदने से रहे। न तो उनके पास सी.डी. प्लेयर हैं और न ही रंगीन टी.वी.। आज की फिल्में मुंबई से चालू होती हैं और बैंकाक (पहले के भारतीय), स्विट्जरलैंड, ब्रिटेन या न्यूयार्क उड़ जाती हैं। पहले की हिन्दी फिल्मों में जैसे एक सांप दिखाना या भगवान का नाज जरूरी होता था वैसे ही आज की फिल्मों में 'जेट एयरवेज' का विमान दिखाना जरूरी होता है। आज की फिल्मों में एक अच्छी बात देखने में आती है। भगवान का मजाक नहीं उड़ाया जाता जेसा कि सन् सत्तर से दो हजार तक की फिल्मों में होता था। कुछ फिल्में भारत की वास्तविक परिस्थितियां दिखलाती हैं। वे हैं आतंकवाद पर आधारित फिल्में, पर हिना और वीर-जारा में कुछ अति काल्पनिकता ही देखी गई। अब नायक पारिश्रमिक अरबों रुपयों में लेने लगे हैं। फिल्मों में अब भारत दिखाने की बजाय सलमान खान, आमिर खान एवं नायिकाओं के शरीर ही बचे हैं। भारत तो गायब होना ही है। -डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव (प्रैसवार्ता)

बाल फिल्में और बच्चे

आधुनिक युग में इलैक्ट्रोनिक मीडिया से उपजे शोर व विदेशी प्रसारण सेवाओं की अंधाधुंध बाढ़ ने हमारे परिवार में तहलका मचा दिया है-जिसमें जिज्ञासाओं का ऐसा बबंडर उठा है कि जब बड़े इसकी गिरफ्त में है, तो छोटे बच्चों को इन साधनों के उपयोग से कैसे रोका जा सकता है। रही बात, मनोरंजन की, तो भारतीय तथा विदेशी फिल्मों में, जहां टकराव है, वही रोमांचकारी विदेशी फिल्में डरावनी व कुछ भी कर गुजरने का सबल देती है, फिल्मों को देखना बच्चे को एक प्रदत्त अधिकार प्राप्त है कि यह तो उनके हक में शामिल है, जिसे माता-पिता देखने देने से वंचित नहीं रख सकते हैं। कम उम्र में स्कूल भेजे जाने से बच्चों में अपनी उग्र से अधिक सोच समझ का विकास हुआ है, वही वह अपने पर माता-पिता द्वारा रोक टोक लगाये जाने पर उग्र हो जाते है, तो परिस्थितियों को संभालना मुश्किल हो जाता है, चूंकि जिज्ञासा वश घर में बड़े भी टेलीविजन को देखते हैं। छोटे बच्चों के रहने पर बड़े ही नजर अंदाज कर जाते हैं कि वह क्या समझते होंगे, किन्तु बाद में वही लापरवाही नुकसान देह व बच्चों को प्रतिद्वन्दी की श्रेणी में लाकर खड़ी कर देती है। भारतीय समाज में मध्यम वर्ग व निम्र वर्ग की सोच, समझ व स्थिति में फर्क है। वहां फिल्मों का अभाव जल्दी देखने में आता है, बच्चे पूर्ण विकसित तो होते नहीं, जो देखा, सोचते हैं, सही है और अंजाम देने पर उतर आते हैं। ऐसे में सामाजिक व्यवस्था तो बिगड़ती ही है, साथ में बच्चे का भविष्य व माता-पिता की आशाओं उम्मीदों पर ढेरों तुषाराघात पड़ जाता है। यह कहना गलत होगा कि विज्ञान मनोरंजन व कुछ सीखने जैसी फिल्में बच्चों पर प्रभाव नहीं डालती, डालती हैं, किन्तु इनका प्रतिशत कम ही होता है। ज्यादातर लोग हिन्दी में बच्चों को बहादुरी, साहस व चमत्कार की फिल्मों को प्रधानता देते हैं। पशु, पक्षी, प्यार व उनसे दोस्ती की कहानियां भी होती है, जिस पर प्रतिक्रिया जुटाने पर पाया कि, ''बकवास, हर जगह मात्र शिक्षा, कैसी शिक्षा देना चाहते है-यह फिल्म बनाने वाले। हैरानी की बात की इतनी अच्छी फिल्मों पर यह प्रतिक्रया, उन्हें चाहिए स्पाईडरमैन, शक्तिमान जैसे करैक्टर, यानि कुछ करे या न करें, किंतु इतनी पावन, इतना बल अवश्य हो कि वे किसी की भी मदद कर सकें, हां बच्चों को कभी अपनी मदद व अपने बारे में सोचने का शायद वक्त ही नहीं है। कार्टून फिल्मों में जिस तेजी से चित्र चलते हैं वह कहानी दौड़ती है, उसी रफ्तार से उनको मजा आता है। यदि डॉयलाग डिलेवरी में भी फर्क या दूरी है, तो बच्चों को तुरंत ही बोरियत आ घेरती है। इतनी उतावली व उग्र प्रवृत्ति की पीढ़ी का क्या करें, क्या इन्हें धीरज व धैर्य वाली, ज्ञान की या जिज्ञासा वाली कोई मूवी दिखा सकेंगे। मुख्य बात तो तब है कि अधिकांश परिवारों में बच्चों को लेकर थियेटर ले जाना ही कठिन है। माता-पिता अपने लिये ही समय मुश्किल से निकाल पाते हैं, तो, बच्चों को उनकी बाल उम्र तक एक या दो फिल्में दिखा दो, तो समझो बहुत हो गया। बच्चे अपनी पूर्ति टैलीविजन से करते हैं। उस पर दिखाई जाने वाली किसी भी तरह की फिल्म उनको तो देखना है, चाहे वह ठीक हो या नहीं। यह दावित्य बनता है हमारा, कि हम बड़े बच्चों के चहूंमुखी विकास के लिए अच्छी व बेहतर फिल्मों का निर्माण कर उन्हें बच्चों के देखने व दिखाने की व्यवस्था करनी चाहिये। जैसे आजादी के या स्वास्थ्य के संबंध में बड़ों को जागृत कर रहे है, वैसे ही बच्चों के लिए फिल्में, नर्सरी, स्कूलों व मेलों की फिल्में दिखाई जाये, जिससे उनकी अच्छी सोच व समझ स्वस्थ मनोरंजन पद्धति का विकास हो। -अंजना छलौत्रे 'शशि',प्रैसवार्ता

Wednesday, November 25, 2009

सरकारी विवशता या अक्षमता

गन्ना मूल्य के संबंध में जो बवाल हुआ, जो हंगामा हुआ और जितना राष्ट्र की सम्पत्ति का नुकसान हुआ, वह उससे कहीं ज्यादा है जो गन्ना मूल्य किसान मांग रहे थे। रेलों की पटरियां उखाड़ी गईं, वाहनों में आग लगा दी गईं, सड़कों पर जाम लग गया, मुसाफिर बेहाल रहे, मरीज समय पर इलाज से तरस गये। यह सब इसलिए हुआ कि सरकार और मिलें किसानों को उनके गन्ने का वाजिब मूल्य देना नहीं चाहते। आश्चर्यजनक है कि जब चीनी का मूल्य 40/- रुपये प्रतिज किलो कर दिया गया तो गन्ने का मूल्य 300 रुपए प्रति क्विंटल क्यों नहीं होना चाहिए। सभी जानते हैं किस प्रकार मील मालिकों ने वार्ता करके अपनी चीनी का मूल्य बढ़वाया होगा। किसानों में वह योग्यता नहीं है, वरना किसान भी यदि वही तरीका अपनाते तो अब तक गन्ने का मूल्य बढ़ गया होता। सरकारी अफसरों के वेतन हजारों से लाख हो गये। सांसदों और विधायकों के वेतन उनकी आवश्यकता से अधिक हो गये। सुविधाएं अलग से हैं, यानि जो हमारे प्रतिनिधि है वो धनाढ्य हो गये और हम गरीब के गरीब रह गये। जब सरकारी अफसरों के वेतन, अध्यापकों और प्रोफेसरों के वेतन, उद्योगपतियों के प्रबन्धकों और एकाउंटैंटों के वेतन और डाक्टरों की फीस कई-कई गुनी बढ़ सकती है तो गन्ने का मूल्य पिछले साल के मुकाबले तीन गुना क्यों नहीं होना चाहिए। सरकार गन्ने का मूल्य क्यों नहीं बढ़ा रही, ये किसान नहीं समझते वरना इस सुविधा शुल्क के युग में सरकार से कोई भी काम कराना जितना आसान है, उतना कभी नहीं था। राज ठाकरे ने विधानसभा में विधायक को पिटवा दिया, क्योंकि वह विधायक देश भक्ति के जनून में हिन्दी में शपथ ले रहा था। उसे क्या मालूम था कि देश द्रोहियों की ताकत इतनी बढ़ चुकी है कि अब सरकार नाम की कोई चीज विधान सभा में नहीं है। मेरी हमदर्दी है उस विधायक के साथ जिसने हिन्दी का झण्डा बुलंद रखा और ईश्वर से प्रार्थना है कि वह इन गुण्डागर्दी करने वालों को उचित सजा दे। बात यही पर नहीं रूकती देश की अखण्डता पर एक व्यक्ति लगातार आघात कर रहा है और हम देख रहे हैं। वरूण गांधी को भड़काऊँ भाषण के आरोप में जेल में डाल दिया जाता है और राज ठाकरे को कोई सजा नहीं दी जाती। राज ठाकरे ने पुन: विष-वमन किया है कि स्टेट बैंक की नौकरियां मुम्बई में केवल मराठियों को दी जाये और सरकार खामौश है। पहले उत्तर भारतीयों को पीटा गया। एक बिहारी युवक को पुलिस ने साहब को खुश करने के लिए गोली मार दी और बात आई-गई हो गई। क्या विवशता है कि हम राज ठाकरे को जेल में नहीं डाल सकते। सरकार इतनी कमजोर है तो गद्दी छोड़ क्यों नहीं देती और वहां कोई देश भक्त राज्यपाल क्यों नहीं बना दिया जाता। राज्यपाल शासन यदि किसी देश भक्त के हाथ में होगा तो ये गुण्डे सलाखों के पीछे होंगे। समलैंगिकता को मान्यता दे दी गई, यह बात सरकार के पक्ष में है, क्योंकि समलैंगिकता से आबादी रूक जायेगी और जनसंख्या इतनी तेजी से नहीं बढ़ेगी जितनी तेजी से बढ़ रही है, किन्तु आदमी जानवर से भी नचे गिर जायेगा। जानवरों में भी समलैंगिकता संबंध नहीं है। पक्षियों में भी समझ है, लेकिन आदमी वासना के वशीभूत होकर समलैंगिकता सम्बन्धों पर उतर आया है। कितना दुखदायी है यह विचार कि प्रकृति के नियम को तोड़कर स्त्री और पुरूष अपना-अपना धर्म, संस्कृति और सभ्यता को भूलकर समलैगिक सम्बन्धों की ओर भाग रहे हैं। व्यभिचार बढ़ रहा है। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है और सरकार इसको रोकने में अक्षम है। पोलियो उन्मूलन का शोर मच रहा है, अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं और जब तक रोटरी अन्तर्राष्ट्रीय जीवित है, तब तक पोलियो उन्मूलन चलता रहेगा और पोलियो के नये केस भी मिलते रहेंगे। क्योंकि रोटरी अन्तर्राष्ट्रीय भी नहीं चाहता कि पोलियो उन्मूलन हो। कारण सर्वज्ञात है। पोलियो का अरबों रुपया कहां गया, इसका उत्तर अगर जनता मांगेगी तो पता चलेगा कि अधिकांश धन फिल्मी सितारों के बयान दिलाने, पंडितों और मोलवियों के फतवे जारी कराने, रैलियां करने, पंच सितारा होटलों में दावतें खाने में खर्च हो गया और कुछ लोगों की जेबों में घुस गया। पोलियो उन्मूलन टीम दवा पिलाने गई और पीटकर भगा दी गई। सरकार को पिटने की आदत पड़ चुकी है। नेता कहते हैं जूते मार लो, जूते की चोट मंजूर है, लेकिन वोट की चोट मत दो। कितनी भी कोशिश कर ली जाये सरकार पोलियो उन्मूलन नहीं कर सकती और इससे हाथ भी नहीं खींच सकती, क्योंकि बहुत से हाथों को पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने चांदी का बना दिया है। क्रिकेट हमारी सबसे बड़ी मजबूरी है। हम क्रिकेट खेलने के लिए कितने विवश है, इसका अंदाजा इससे लगता है कि हम उन तीन देशों से क्रिकेट खेलते हैं, जो हमारा बिल्कुल भला नहीं चाहते। ऑस्ट्रेलिया में हमारे बच्चों से मारपीट की जा रही है और हम ऑस्ट्रेलिया से क्रिकेट खेल रहे हैं। पाकिस्तान जो हमारे देश के विरूद्ध आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रहा है, अपने यहां आतंकवादी अड्डे और शिविर चला रहा है। काशमीर में जो रोज वारदात कराता है, जिसके हाथ संसद के दरवाजे तक पहुंच गये थे, जिसके कारण मुंबई दहल गई थी। हम उससे भी क्रिकेट खेल रहे हैं। इग्लैंड जिसने हमें वर्षों गुलाम रखा, हमारे देश भक्तों को काला पानी की सजा दी, हम उसे साथ भी क्रिकेट खेल रहे हैं, यानि हम बेशर्म हो चुके हैं अथवा कोई ऐसी विवशता है जो हमें क्रिकेट खेलने के लिए विवश करती है। एक बात तो तय है कि क्रिकेट के खिलाडिय़ों को करोड़ों रुपए साल की आमदनी है और उनसे संबंधित व्यक्तियों को भी कुछ न कुछ तो मिलता ही है, जिससे वह क्रिकेट से बंधे हुए हैं। देश को क्या मिल रहा है। सिवाय नब्बे हार और दस जीत के। मैच फिक्सिंग कभी-कभी सुनने में आता है कि चंद सिक्कों के लिए मान प्रतिष्ठा सब बेच दी गई। क्रिकेट खिलाडिय़ों के दिमाग इतना खराब हो चुके हैं, उनमें इतना अहंकार बढ़ गया है कि वह पद्मश्री जैसे सम्मान को ठुकराकर विज्ञापन करने को अच्छा समझते हैं। देश क्रिकेट के सामने विवश है। जहां गरीबी सौ रुपये प्रतिदिन की दर से तोली जाती है, जहां हिन्दी के अध्यापक को तेरह सौ रुपये मासिक वेतन मिलता हो वहां क्रिकेट के खिलाड़ी को करोड़ों रुपये साल की आमदनी होना उन गरीबों के मुंह पर तमाचा है, जिनकी गरीबी हटाने की बात सरकार करती है। अमेरिका, चीन, जापान और रूस को भारत से शिक्षा लेनी चाहिए और अपने यहां भी क्रिकेट जैसे नामुराद खेल को आरंभ कर देना चाहिए। मिड-डे मील भी हमारी ऐसी ही विवशता बन चुकी है कि हम उसे समाप्त करने में अथवा उसकी शुद्धता बनाये रखने में अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। मिड-डे मील में प्रतिदिन कीड़े निकलना, सड़ा हुआ भोजन मिड-डे मील के नाम पर बच्चों को देना, उसे खाना और बच्चों का बीमार पडऩा रोज की बात हो गई है और हमें इसकी आदत पड़ गई है। बच्चे मरते हैं मरे, मिड-डे मील में अगर कीड़े नहीं होंगे तो उसमे बचेगा ही क्या। इसलिए सरकार देख रही है, कानून देख रहा है। मिड-डे मील का प्रयोग जारी है। बच्चों की बीमारी बरकरार है। कीड़ों को भोजन मिल रहा है और कीड़े बच्चों को मिल रहे हैं। हाय-री विवशता, हाय-री अक्षमता हम न तो मिड-डे मील को बंद कर सकते हैं और न ही उसमें श्ुद्धता ला सकते हैं। हम सब कुछ सहने और देखने के लिए विवश हैं, क्योंकि देश हित से बड़ा वह हित है जो मिड-डे मील में छुपा हुआ है। सीरियल जो टी.वी पर दिखाये जा रहे हैं, उनमे अश£ीलता और नग्रता की भरमार है, उद्देश्यहीन और निरर्थक सीरियर दिखाये जाते हैं। पता नहीं सरकारी मंत्रालय इनको देखता भी है या नहीं, इनके प्रसारण की अनुमति किस आधार पर दी जाती है। पिछले दिनों एक सीरियल खतरों का खिलड़ी आया था, जिसमें न मनोरंजन था न कोई शिक्षा थी, लेकिन विज्ञापन के बल पर उसका प्रसारण हुआ। इसी प्रकार आजकल पति पत्नी और वो तथा बिग बौस नाम के दो सीरियल चल रहे हैं। दोनों में कोई शिक्षाप्रद बात नहीं है, कोई मनोरंजन नहीं है, कोई उद्देश्य नहीं है, लेकिन सरकारी विवशता है कि इनका प्रसारण हो रहा है। सीरियल के अंदर विज्ञापनों की संख्या भी तय नहीं है। तीस मिनट के सीरियल में तीस से अधिक विज्ञापन होते हैं। भले ही व्यक्ति विज्ञापन न देखना चाहे, लेकिन सीरियल के लालच में देखना पड़ता है। हम कितने विवश है कि सीरियल में विज्ञापन की संख्या भी प्रतिबन्धित नहीं कर सकते। एक और सुखद तथय है कि कुछ सीरियल अन्तहीन हो गये हैं। असीमित एपीसोड किसी-किसी सीरियल के दिखाये जा रहे हैं। लोग उनको नकार चुके हैं। ऐसे विज्ञापनों से और सीरियल से उब चुके हैं, लेकिन वह टी.वी पर अपना स्थान बनाये हुए है। हमारी विवशता देखिए कि हम न तो विज्ञापनों की सीमा निश्चित कर सकते हैं, और न ही टी.वी. सीरियल के एपीसोड की सीमा निश्चित कर सकते हैं। यह तो हम कहना ही नहीं चाहते और या हमारे कहने में दम नहीं है कि टी.वी. सीरियल ऐतिहासिक, धार्मिक, देश भक्ति से ओत-प्रोत, शिक्षाप्रद तथा उद्देश्यपूर्ण बनने चाहिए। भ्रष्टाचार के इस युग में सुविधाशुल्क के पहियों पर चलती हुई सरकार उस ओर बढ़ रही है, जिस ओर एक जादूगर सारे शहर के चूहों को लेकर एक पर्वत की ओर चला था और बांसुरी बजाते हुए पर्वत के किनारे तक ले गया, जहां एक-एक करके सारे चूहे पर्वत के नीचे बहने वाले समुद्र में गिर पड़े। भ्रष्टाचार भी एक ऐसा ही जादू है और सुविधा शुल्क ऐसी ही व्यवस्था है, जिसके कारण चीनी के दात तो बढ़ सकते हैं, लेकिन गन्ने का मूल्य नहीं। जिसके कारण मिड-डे मील में कीड़ों का मिलना स्वभाविक है। जिसके कारण बेरोजगारी होने के बावजूद रिक्त स्थानों को भरने के लिए विज्ञप्तियां नहीं होती, जिसके कारण टी.वी. पर अद्र्धनग्र अभिनेत्रियां हमारी पीढ़ी को बिगाडऩे के लिए थिरकती नजर आती हैं और भी कितनी विवशताएं हैं, जिनसे देश ग्रस्त है और जनता भुगत रही है। कब हजारा राष्ट्रीय चरित्र जागृत होगा और हम व्यक्तिगत हित के साथ-साथ देश हित को सर्वोपरि रखेंगे, प्रतीक्षा है। -हितेश कुमार शर्मा, बिजनौर (प्रैसवार्ता)

कॉपीराइट और रॉयल्टी के खेल में प्रकाशक

सन् 1965 में लेखकों के साथ प्रकाशकों का जो अनुबंध हुआ उसमें प्रकाशक 7 से 12 प्रतिशत रॉयल्टी देते थे, किन्तु आज भी लेखकों की रॉयल्टी में कोई वृद्धि नहीं हुई, बल्कि कुछ घटकर ही मिलने की परम्परा चल रही है। सच्चाई यह है कि, सरकार का प्रकाशकों को आज भी पूरा सहयोग उपलब्ध है, परन्तु प्रकाशक लेखकों की जगह नौकरशाहों को पैसा देना ज्यादा पसंद करते हैं कि, किताबें लाइब्रेरी जैसे स्थलों पर लगे और बिके। ''राधे गोपाल स्वरूप'' रॉयल्टी की प्रथा को देखा जाये तो सुव्यवस्थित एवं विश्वसनीय ढंग से चलाने का श्रेय इने-गिने प्रकाशकों को ही प्राप्त है। इस प्रथा का पालन अधिकांश प्रकाशक नहीं कर पाते। वे स्वेच्छा नुसार एक मुश्त एकम चुका कर कॉपीराइट ही खरीद लेते हैं। इससे लेखकों की रचनायें सस्ते दामों पर खरीदकर काफी धन इका कर लेते हैं और फिर वे कभी लेखकों की ओर फूटी नजर से भी देखना नहीं चाहते। यह पूंजी पतियों की परिपार्टी कुछ सीमित लेखक समाज के लिए उचित ठहरती है, किन्तु सामान्यत: लेखक अब भी दयनीय स्थिति में जीते हैं। वे अपनी पुस्तकों की कॉपीराइट बेचने को विवश होते हैं, क्योंकि रॉयल्टी के पैसे लेखकों के लिए आकाश कुसुम ही होते हैं। लेखक और प्रकाशकों का सदैव से चोली-दामन का साथ रहा है और आगे में बदस्तूर जारी रहेगा। भले ही प्रकाशक पुस्तकें न बिकने और घाटे का रोना रोते हुए रॉयल्टी देने से बचते रहे हों। जबकि प्रकाशकों ने लेखकों की रचनाओं को अपने व्यवसाय का साधन हमेशा ही बनाया है। एक बात समझने की है, यदि सच में प्रकाशकों को घाटा उठाना पड़ता है तो प्रकाशन का व्यवसाय दिनों-दिन विस्तार क्यों लेता है। इस संदर्भ में डा. सूरिदेव जी का मानना है कि, रॉयल्टी की राशि लेखकों को सही ढंग से देने की प्रथा में परिशुद्धि की अधिक आवश्यकता है। जबकि कुछ ऐसे भी आदर्श प्रकाशक हैं, जो इस परम्परा का निर्वाहन सुचारू रूप से संचालित कर रहे हैं। उनके नजरों की तरह। सामान्यतय: भारत में लेखकों को अपनी पुस्तकों की रॉयल्टी से जीना दुभर रहा है। यह स्थिति केवल सामान्य लेखकों की ही नहीं नामचीन लेखकों की भी रही है। इनमें निराला, प्रेमचंद, दिनकर, शिवपूजन सहाय एवं अमरकांत जैसे लेखकों का नाम सर्वोपरि है। चित्रा मुद्गल का भी इस संदर्भ में मानना है कि, व्योवृद्ध साहित्य अकादमी पुरस्कृत लेखक अमरकांत का एक समय था, उनकी पुस्तकें खूब बिकीं। किन्तु समय ने करवट बदला कि स्वयम् और परिवार का खर्चा उठाना भी दुश्कर हो गया। बीमारी ने उन्हें ऊपर से नीचे ला दिया। परिणामत: पुरस्कर तक बेचने की नौबत आ गई। अमरकांत जी को लगता कि उनकी इस दशा का जिम्मेदार प्रकाशक है-जो उनकी रॉयल्टी दबा कर बैठ गये। क्या भारतीय विशेषकर हिन्दी लेखकों की ऐसी दयनीय स्थिति सदैव बनी रहेगी तो विचारणीय है। सन् 1965 ई. में भारत की जनसंख्या लगभग 38 करोड़ थी। तब उडिय़ा के फकीर चंद, तमिल के सुब्रह्मण्यम हमारी भारतीय भाषाओं में जितने प्रचलित थे उससे अधिक रशियन लेखक प्रसिद्धि पा रहे थे। ऐसा इसलिए कि सरकारों ने विश्व स्तर पर उत्कृष्ट भारतीय साहित्य की स्थाना के प्रति कभी रूचि नहीं दिखाई। इससे बड़ा विचारणीय चिंतन और क्या हो सकता है कि, मुशी प्रेमचंद आज भी विश्व के मानस पटल पर स्थापित नहीं हो सके। क्या ऐसा नहीं लगता कि, हिन्दी का लेखक हिन्दी प्रदेशों में ही पढ़ा जाता रहा और भाषाओं के उन भाषी प्रदेशों में प्रचलित रहे। जबकि हिन्दी में अधिक लेखक पढ़े जाते रहे, किन्तु अन्य भाषाओं में हिन्दी के ज्यादा अनुवाद नहीं हुए। जितनी पुस्तकें बाजार में बिकनी चाहिए थी नहीं बिकी। कारण उन पर क्षेत्रवाद का नशा था। इसमें अकादमियों भी सहयोगी रहीं। इससे भारतीय भाषाओं की रचनाएं बाजार सही ढंग से नहीं पा सकीं और लेखकों को रॉयल्टी। पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों, व्यवस्था पत्रों की भी लेख परिश्रामिक के बारे में देखा जाये तो प्रकाशकों के समान ही उपेक्षात्मक नीति हुआ करती है। निराला की साहित्य साधना के यशोधन लेखक ने भी प्रसंगवश माना है कि संपादकीय नीति साधारणतय: यह रहती है कि, लेखकों को कुछ दिये बिना ही हिन्दी सेवा के नाम पर उनसे लेख प्राप्त किये जायें। यदि मजबूरी से परिश्रामिक देना स्वीकार किया तो भरसक उसे टालते रहते हैं। जब किसी तरह पीछा नहीं छूटता तभी परिश्रामिक दिया जाता है। इस इतिहास से सरस्वती और माधुरी जैसी युग संस्थापक श्रेष्ठ पत्रिकाएं भी अछूती नहीं रहीं। इतिहास पुरूष 'पदम सिंह' ने भी यह माना है कि सरस्वती और माधुरी पंूजी पतियों की पत्रिकाएं हैं, परन्तु उनके संपादक अपनी कारगुजारी दिखाने के लिए लेखकों को कोस टरका देते हैं। इसके बावजूद लेखकों की रचनाएं लेना अपना अधिकार समझते हैं। पुस्तकें लिखने के पारिश्रमिक की दर बहुत अच्छी नहीं, फिर भी शर्त के अनुसार प्रकाशक राशि नहीं देता। इन्हें इतिहास पुरूष 'शर्मा' ने 'अर्थपिशाच' की संज्ञ से विभूषित किया है। सच्चाई के धरातल पर प्रकाशकों की अदूरदर्शिता या कि, अर्थ लोलुपता सारे महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित होने से वंचित रह जाते हैं प्राय:। अन्तत: विनिष्ट हो राष्ट्र की सारस्वत समृद्धि बाधित करते हैं। उदाहरणार्थ सन् 1928 ई. में हिन्दी जगत के सर्वोपरि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को विशाल भारत में उनके संस्करण प्रकाशित करने के लिए पं. बनारसी दास चतुर्वेदी 5 रुपए प्रति पृष्ठ देने को तैयार थे। इस बाबत द्विवेदी जी ने उन्हें लिखा कि, इतना तौर संस्कृति और माधुरी तथा सुधा पत्रिका में टिप्पणी लिखने को देते हैं। द्विवेदी जी की चाहत थी कि, कोई उनहें 5 रुपए प्रति कॉलम दे या फिर 5 हजार रुपए में उनकी रचनाओं की कॉपीराइट खरीद ले, जबकि द्विवेदी जी 5 हजार रुपये अपने लिए नहीं बल्कि जरूरतमंदों को खैरात बांटने के लिए मांग रहे थे। परिणामत: हिन्दी प्रकाशकों की अर्थलिस्टा ने द्विवेदी जी की संस्मरण गाथा को अप्रकाशित ही कर डाला। इसी तरह महाप्राण 'निराला' ने अपनी कई महनीय पुस्तकों का तो दो से ढाई सो रुपये में कॉपीराइट बेच दिया। इनकी लेखकीय स्थिति यह थी कि, एक लेख के 15-20 मिल जाते थे, वो भी हर महीने नहीं। क्योंकि कोई भी पत्रिका हर माह उनका लेख नहीं छाप सकती थी। यहां तक कि, हिन्दी की अधिकांश पत्रिकाएं सन् 1927 ई. तक उनके लेख छापने को तैयार नहीं थी। यही स्थिति आज भी हमारे जैसे रचनाकारों-मसलन जनकवि प्रकाश, मुनेन्द्र नाथ श्रीवास्तव, रमेश नाचीज, एवं मूरख इलाहाबादी की है-जो एक विडम्बना मूलक स्थिति है। देखा जाये तो आधुनिक पत्रकारिता में पारस्परिक ईष्र्या द्वेष और व्यक्तिवादिता का नग्न ताण्डव पूर्व की भांति वर्तमान में भी यथावत है साथ ही अपेक्षित भाव विशुद्धि का सर्वथा अभाव सा हो गया है। प्रकाशकों की प्राय: यह मंशा रहती है कि, वे लेखकों को यत्किन्चित राशि देकर उनकी पुस्तकों की कॉपीराइट (सर्वाधिकार) खरीद लें ताकि उन्हें रॉयल्टी (बिक्री पारिश्रामिक) देने का मामला ही न रहे। -राधेगोपाल स्वरूप (प्रैसवार्ता)

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