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Saturday, January 9, 2010

प्रैस की स्वतंत्रता और पत्रकार

माननीय उच्चतम न्यायालय ने कुछ पत्रकारों द्वारा सरकारी मकानों को आंबटनके सिलसिले में प्रस्तुत की गई एक रिट याचिका पर अपने निर्णय के साथ पत्रकारों को एक सामयिक सलाह भी दी थी। न्यायालय का कहना है कि, पत्रकार यदि सचमुच प्रैस की आजादी को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो उन्हें सरकारी सुविधाओं का प्रलोभन छोड कर झोंपडिय़ों में रहने के लिए तैयार रहना चाहिए। न्यायालय की सलाह को पत्रकार मानेंगे-ऐसा तो असंभव लगता है, मगर प्रैस की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए यह जरूरी भी है। पत्रकारिता और प्रलोभन दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। पत्रकारिता को लेकर भी एक उलझन है, दिशाहीनता है कि पत्रकारिता पेशा है, सेवा है या एक मिशन। नौकरी, धंधा है या आदर्श। दुर्भाग्यवश भारत में पत्रकारिता का इतिहास कोई पुराना नहीं है। छापाखाना और प्रैस अखबार कल की ही बाते हैं। इसलिए प्रेरणा और दिशा-निर्देश के लिए इतिहास पुराण में भी गोता नहीं मार सकते। हकीकत से जुड़े लोग आत्म संकट के काल में धनवंतरी से जुड़ जाते हैं और शिल्पी कारीगरी वाले विश्वकर्मा से। अध्यापकों के मार्ग दर्शन हेतु तो गुरू की महत्ता से इतिहास भरा पड़ा है। यह अलग बात है कि, आधुनिक युग तक आते-आते ऐतिहासिक पौराणिक रोमानियत से निकल कर आज सभी व्यवसाय बन गये हैं। परन्तु फिर भी अन्तरआत्मा के संकट काल में आत्म विश्लेषण के लिए इनके पास पुरानी न सही-करीब सात दशक पुरानी पत्रकारिता की एक समृद्ध परम्परा रही है। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू राम पराडकर, लोक मान्य तिलक, महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, सभी किसी न किसी रूप में अपने काल के पत्रकार रहे और उन्होंने पत्रकारिता की गौरवमयी परम्परा स्थापित की है, परन्तु उस समय पत्रकारों के सामने स्वतंत्रता एक लक्ष्य था। ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत। उन दिनों अखबार भी व्यवसाय नहीं माने जाते थे, बल्कि लक्ष्य प्राप्ति के साधन थे। आज पत्रकार पर तिहरी मार है, सरकार के प्रलोभन हैं, जिन व्यावसायिक घरानों के अखबार हैं-उनके अपने खास ध्येय हैं और इन दोनों से कहीं आगे बढ़ कर कांशी राम जैसे राजनीति के पक्षधर उनके पीछे ल_ लिए घूम रहे हैं। इन तीनों से बढ़कर एक अंदर का अन्तद्र्धद भी है-वहीं जिसका जिक्र आरंभ में है। पत्रकारिता आदर्श है या पेशा/परन्तु यह प्रश्र अपने आप में पूर्ण नहीं है। पूरा प्रश्र तब बनता है, जब इसके साथ यह भी जोड़ दिया जाये कि, अखबार आदर्श है या व्यवसाय। कौन नहीं जानता, कितने ही अखबार व्यावसायिक घरानों से जुड़े हुए हैं। वहीं सम्पादकीय नीति में सम्पादक स्वतंत्र नहीं फील्ड के पत्रकार की कौन कहे। आपात स्थिति में दूध का दूध और पानी का पानी हो गया था। रामनाथ गोयनका और उनके अखबारों की बातें जाने दें, तथाकथित राष्ट्रीय अखबार, उन दिनों किसकी रक्षा कर रहे थे-व्यवसाय की या पत्रकारिता धर्म की। सरकार की मार तो और भी भयानक है। वह प्रलोभन भी देती है और भय भी। उसके पास आखिर बल है। पहले लोभ से खरीदो और यदि कोई न खरीदा जाऐ, तो कुचल दो। मुलायम सिंह यादव ने जब प्रैस के विरूद्ध ''हल्ला बोल अभियान'' चलाया था, तो वह उन बचे खुचे पत्रकारों के ही विरूद्ध था, जो प्रलोभनीय जाल में नहीं फंसे थे। समाचार पत्रों में सूचियां छपी थी कि, मुलायम सिंह के प्रलोभनीय जाल में कौन, कितना निहाल हुआ। कांशीराम तो सत्ता की गंध से स्वयं ही पत्रकारों पर टूट पड़े थे। कैमरों की लोकलाज भी उन्हें नहीं रोक सकी। दिल्ली में बैठा अभिजात्य वर्ग कांशी राम के बारे में तो नाक बंद कर कह देगा-उफ! कैसे कैसे लोग राजनीति में आ गये हैं, परन्तु इग्लैंड के जान मेजर के बारे में क्या कहेगे, जिन्होंने 'डेली मिरर' के पत्रकार की सरेआम पिटाई कर दी थी। जान मेजर तो वहां के प्रधानमंत्री थे। सरकारी प्रलोभन तो पत्रकार ठुकरा देगा और प्रैस की रक्षा के लिए झोंपड़ी में रह कर ठिठुर भी लेगा, परन्तु झोंपड़ी के बाहर खड़ी राजनीति कीलाठी एवं दूर बैठी सरकार की भृकुटि से उसे कौन बचाएगा। प्रलोभन से तो बच जायेगा-भय से कैसे मुक्त होगा। दरअसल, जिनके लिए पत्रकारिता व्यवसाय है-उनको न तो प्रलोभन से बचने की जरूरत है और न ही राजकीय कोप में भयभीत होने की। ऐसे पत्रकारों के लिए तो वर्तमान में फलने-फूलने के लिए आदर्श स्थितियां है। चर्चा है कि बिहार के चारा कांड में कई पत्रकार फंसे हुए हैं। आजादी की लड़ाई और आपातकाल में भी ऐसा प्रमाण मिल गया था। पत्रकारिता क्षेत्र में जो
व्यवसाय जान कर आए हैं- उन पर भी आखिर व्यवसाय की शूचिता एवं नैतिकता के आधार पर नियम लागू होंगे ही। पत्रकारिता व्यवसाय में प्रैस की स्वतंत्रता तो एक नैतिक धर्म है। उच्चतम न्यायालय की सलाह का नैतिक पाश उन पर भी लागू होता है। एक वर्ग ऐसा भी है, जो पत्रकारिता को न आदर्श मानता है और न व्यवसाय, बल्कि उससे भी आगे की चीज। वे पत्रकार होते हुए भी झोंपड़ी में ठिठुर रहे पत्रकार के साथ नहीं, बल्कि बाहर लाठी लिए तैनात राजनीति के साथ है। वहीं दरअसल प्रैस की आजादी के लिए सबसे बड़ा खतरा है, क्योंकि घर के अंदर होते हुए भी घर के शत्रु भी हैं। उनके लिए उच्चतम न्यायालय की सलाह की नहीं, किसी निर्णय की आवश्यकता है। कौन जाने, न्यायिक सक्रियता के इस युग में किसी दिन ऐसा निर्णय आ भी जाये।

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