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Saturday, January 9, 2010

पत्रकारिता के मान दंड

पत्रकारिता की सबसे बड़ी शर्त है-अपने पाठकों को पहचानना। पाठक कैसी सामग्री चाहते हैं, यदि इसका ज्ञान हो जाये, तो समाचार पत्र सफल हो जाता है। प्रमाणिकता, संतुलन, स्पष्टता, मानवीय दिलचस्पी और जिम्मेवारी के साथ प्रस्तुत प्रकाशन सामग्री पाठकों के दिलों दिमाग पर एक छाप छोड़ते हैं। जाने-माने अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार पुलिजर ने ठीक ही कहा था, कि ऊंचे आचार सिद्धांतों के बिना अखबार और उनके पत्रकार सरकारी तंत्र की तरह न सिर्फ असफल होंगे, अपितु समाज के लिए खतरनाक भी हो जायेंगे। इस दृष्टि से पत्रकारिता की चकाचौंध से प्रकाशित होकर इस पेशे में आने वाले लोगों को अपने कर्तव्यों से बारीकी से परिचित होना जरूरी है। पत्रकार चन्द्र मोहन ग्रोवर का कहना है कि इसमें कोई संदेह की गुंजाईश नहीं, कि स्वस्थ पत्रकारिता के लिए मौके पर लिखना-पढऩा, काम के प्रति लगाव, अपने निजीपूर्वाग्रह छोड़कर सत्य की खोज, हर प्रकार के तथ्यों की पुष्टि, चौबीस घंटों की प्रतिबद्धता, पुर्न लेखन तथा निसंकोच शब्दकोष की सहायता लेने जैसे गुणों की जरूरत है। एक पत्रकार को अधिक से अधिक जानने की उत्कंठा और रचनात्मक अभिरूची होना स्वाभाविक है। वहीं छोटी सी घटना की भी गहराई से पड़ताल कर दिचस्प ढंग से पेश करने की योग्यता होनी चाहिए। पत्रकार को निस्पक्ष रहते हुए ईमानदारी से काम करना चाहिए। पत्रकार कितना ही जानकार या प्रभावशाली क्यों न हो, जब तक वह अखबार की सीमा का पालन नहीं करता, वह समाचार पत्र के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं हो सकता। समय पर समाचार देना यानि डैडलाईन को समझना पत्रकार के लिए अनिवार्य नियम है। आकस्मिक घटनाओं से अखबार घिसा पिटा लगने से ऊभ जाता है, लेकिन कई बार गर्म खबरें ही नहीं मिलती। ऐसी स्थिति में पत्रकार की रचनात्मकता और क्षमता का पता चलता है। अच्छा पत्रकार वही है, जो स्वयं निर्णय लेने में सक्षम हो। उसे इस बात की प्रतीक्षा नहीं करनी होगी कि मुख्य संवाददाता, समाचार संपादपन या संपादक क्या विषय देंगे। काम पर आते समय भी उसे किसी खबर की गांध मिल गई, तो वह खबर खोजने में लग जायेगा। खबरें खोजना तो ठीक है, परन्तु खबरों के लिए शब्दों से खेलना अवश्य गलत है। लेखक तो शब्दों से खेलते हैं, मगर पत्रकारों को अंकुश रखना होता है। सनसनी पैदा करने के लिए शब्दों से खेलना या तथ्यों को तरोडऩा-मरोडऩा समाचार पत्र के लिए ही नहीं, बल्कि पत्रकार के लिए भी खतरे की घंटी के समान व भारत वर्ष में सरकारी तंत्र से ''गोपनीय'' बनी किसी भी फाईल का विवरण प्राप्त करने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ता है-जबकि कभी-कभी यह सिलसिला टकराव तक भी पहुंच जाता है। यदि कोई पत्रकार किसी व्यक्ति की निजी कम्पनी या संस्थान की जानकारी लेनी चाहे, तो उसे संयम से काम लेना होग, अन्यथा परिस्थिति में बदलाव आ सकता है। सत्ता का वश चले, तो सरकारी विज्ञप्तियों और भाषाओं के अतिरिक्त सब कुछ गोपनीय रहेगा। राष्ट्र हित के गोपनीयता की सीमाएं तय होनी चाहिए, ताकि सरकार और समाज की हर बात खुली और स्पष्ट हो सके। गोपनीय कार्यवाही से गलत सूचनाएं और अफवाहों में वृद्धि होगी और सत्ता का निरंतर दवाब बढ़ेगा, लेकिन नैतिक और सामाजिक मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता रहने पर पत्रकार इस स्वतंत्रता का प्रयोग कर सके। मीडिया का सत्ता से प्रेम संबंध अवश्य उसकी विश्वसनीयता को घेरे में ला सकता है। राजनेताओं को समस्याओं की जानकारी देने के लिए मीडिया पर निर्भर रहना पड़ता है, विशेषकर विपक्षी दल वाले मीडिया का सहारा लेकर ही अपनी छवि बनाते हैं, मगर इसे दुर्भाग्य ही माना जायेगा कि मीडिया के माध्यम से छवि सुधारने वाले सत्ता में आते ही मीडिया आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसी तरह भारत में पुलिसिया तंत्र आज भी विदेशी ब्रिटिश राज के पद चिन्हों पर चल रहा है। पुलिस हर क्षेत्र की अनियमितताओं और ज्यादतियों साथ जुड़ी हुई है, क्योंकि उसके पास कानून और जुल्म का डंडा-बंदूक है। जब भी मीडिया में पुलिस ज्यादतियों के समाचार आते हैं, तो बौखलाई पुलिस में हड़कम्प मच जाता है और मीडिया के साथ कटुता बढ़ जाती है। मधुरता बढ़ाने के लिए मीडिया को अपने ढंग से अपराध समाचारों की खोजकी का सूत्र मजबूत करना चाहिये। मीडिया का काम सरकार की गलतियों की ओर ध्यान का ध्यान आकर्षित करना है, लेकिन राष्ट्र की संप्रभुता उसकी सीमा होनी चाहिए। ओलोचना करते हुए भी राष्ट्रहित में संयम रखते हुए मीडिया को विदेशी ताकतों की इच्छा या जाने-अनजाने उनके हितों की पूर्ति के लिए सरकार और उनकी नीतियों की आलोचना से बचना चाहिए। -चन्द्र मोहन ग्रोवर (प्रैसवार्ता)

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