वर्तमान समय में यथासंभव पुरस्कार व सम्मान मुंह देख-देखकर दिए जा रहे है, न कि पुरस्कृत किए जाने वाले शख्स की कला, प्रतिभा अथवा गुण के आधार पर। ऐसी विकट परिस्थिति में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है, जो एक और उदाहरण है इसी बात का कि नौटंकी की यह परम्परा न केवल भारत में बल्कि दुनियाभर मे बदस्तूर जारी है। इसमें कोई हैरत या अचंभे की बात नहीं है, क्योंकि अभी तक यही दस्तूर चलता आया है और यही आगे भी चलता रहेगा। यदि ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया तो महज अमेरिका के तलवे चाटने के लिए, उसे खुश करने के लिए। वैसे भी पुरस्कारों के इस तरह के 'अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपनों को दे' की तर्ज पर हो रहे वितरण से पुरस्कारों की न सिर्फ गरिमा घटी है, बल्कि उनका महत्व भी दिनोंदिन कम होता जा रहा है। हालांकि यह सच है कि पुरस्कार चमत्कार करते हैं, किन्तु ऐसे पुरस्कार, जो मुंह देखकर दिए जाते हों, कोई मायने नहीं रखते। अगर बात करें हम नोबेल पुरस्कारों के मामले में भारत की उपेक्षा की तो भारत के लिए देश-विदेश में जो श्रद्धा, ख्याति, प्रसिद्धि एवं चाहत लोगों में है, वही हमारे और देश के लिए सबसे बड़ा नोबेल पुरस्कार एवं सम्मान है। -विशाल शुक्ल, छिंदवाड़ा (प्रैसवार्ता)
Wednesday, January 20, 2010
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