प्रोफेसर एम. के राय अमरावती विद्यापीठ में बाये टेक्रालॉजी के विभागाध्यक्ष हैं। उन्होंने ही एक दिन प्रश्र किया कि आज की फिल्मों में भारत नहीं दिखता। आज की फिल्में या तो अरब पतियों के युवाओं के प्रेम प्रसंग दिखाती हैं या प्रवासी भारतीयों की समस्यायें। मनोज कुमार यद्यपि बहुत अच्छे अभिनेता नहीं रहे पर उनकी फिल्मों में नायिकाओं के देहयष्टि के साथ-साथ कृत्रिम गांव और खेत तो होते थे, हालांकि उनकी फिल्में, 'मदर इंडिया' या 'नया दौर के मुकाबले में खड़ी नहीं होती थी, पर उन्होंने फसलों से पैसा बहुत पैदा किया। उन्होंने भारतीयों के रगों में दौड़ती आरतियों को फिल्मों में दौड़ा कर परदे में से पैसा खींचा। फिल्मों में भारतीयता कृत्रिमता से नहीं देखी जा सकती, उनमें भारतीयता तो प्रेमचंद की कहानियों को या शरत् चंद के उपन्यासों को फिल्माकर ही देखी जा सकती हैं। अत: दो बीघा जमीन, छोटी बहू, शतरंज के खिलाड़ी, कफन इत्यादि में भारतीयता परिलक्षित होती है। श्याम बेनेगल इत्यादि ने शबाना आजमी, स्मिता पाटिल इत्यादि नायिकाओं के निर्वस्त्र उभारों को ही भारतीयता समझा। साथ में गरीबी, विवशता ही उनकी नजरों में भारतीयता रही। उनकी फिल्मों में एक अमरीश पुरी (दुष्ट आदमी) रहता था एक नसीरुद्दीन शाह या ओम पुरी (गरीब एवं असहाय आदमी) रहता था और एक स्मिता पाटिल या शबाना आजमी रहती थी, बाकी कहानी आप खुद बना सकते हैं। आज भी लगभग 63 प्रतिशत गरीब हैं और गांवों में रहते हैं। मगर फिल्मों में हर भारतीय परिवार सम्द्ध दिखाया जाता है। उन फिल्मों की मुख्य समस्या लड़कियों के लिए वर ढूंढना नहीं, बल्कि प्रेमरत युवाओं की शादी है। आज के फिल्मकारों को भारत का मतलब शहरी झुग्गी झोपडिय़ां हैं। उनका संघर्ष करके समृद्ध दिखाना एक धनात्मक सोच है, क्योंकि अंग्रेजी साहित्य की कहानियां जहां दुखांत होती थीं वहीं भारतीय साहित्य में कहानियां सुखांत होती हैं। (दे लिव्ड हेप्पीली एवर आफटर) यह सही है कि मुक्त अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चलते भारत चका चौंध में जाग रहा है और अमीर बनने का संघर्ष फिल्मों में हमें आंशिक भारतीयता के दर्शन होते हैं, पर फिल्मों में गांव बनाम शहर या गरीब बनाम अमीर कम ही दिखते हैं। इस प्रक्रिया में फिल्मकारों की विवशता अधिक है। भारतीय फिल्में अब विदेशी दर्शकों को नजर में रखकर अधिक बनाई जाती हैं, क्योंकि अब कृत्रिम भारत ही उनका खरीद दार है। सी.डी. गरीब लोग तो खरीदने से रहे। न तो उनके पास सी.डी. प्लेयर हैं और न ही रंगीन टी.वी.। आज की फिल्में मुंबई से चालू होती हैं और बैंकाक (पहले के भारतीय), स्विट्जरलैंड, ब्रिटेन या न्यूयार्क उड़ जाती हैं। पहले की हिन्दी फिल्मों में जैसे एक सांप दिखाना या भगवान का नाज जरूरी होता था वैसे ही आज की फिल्मों में 'जेट एयरवेज' का विमान दिखाना जरूरी होता है। आज की फिल्मों में एक अच्छी बात देखने में आती है। भगवान का मजाक नहीं उड़ाया जाता जेसा कि सन् सत्तर से दो हजार तक की फिल्मों में होता था। कुछ फिल्में भारत की वास्तविक परिस्थितियां दिखलाती हैं। वे हैं आतंकवाद पर आधारित फिल्में, पर हिना और वीर-जारा में कुछ अति काल्पनिकता ही देखी गई। अब नायक पारिश्रमिक अरबों रुपयों में लेने लगे हैं। फिल्मों में अब भारत दिखाने की बजाय सलमान खान, आमिर खान एवं नायिकाओं के शरीर ही बचे हैं। भारत तो गायब होना ही है। -डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव (प्रैसवार्ता)
Thursday, November 26, 2009
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