विशेषत: 15 अगस्त और 26 जनवरी पर और सभी-सभी रेडिय़ों पर मो. रफी का गाया जहां डाल-डाल पर सोने की चिडिय़ा करती है बसेरा वो भारत देश है मेरा 'सिकंदरे आजम' के राजेन्द्र कृष्ण के लिखे इस गीत के संगीतकार थे। 'हंसराज बहल' शायद इस गुणी संगीतकार का नाम भी लोगों को आज याद न हो, पर 'मुहोब्बत जिन्दा रहती है मुहोब्बत मर नहीं सकती' (चंगेज खान) भीगा-भीगा प्यार का समां (सावन) जिंदगी भर गम जुदाई का मुझे तरसायेगा और चाहे दिन हो रात हम रहे तेरे साथ (मिस बॉम्बे) हाये जिया रोये (मिलन) आये भी अकेला जाये भी अकेला (दोस्त) आज भी लोगों के कानों में गुंजते रहते हैं। फिल्मों में स्वर्ण युग में नौशाद सी रामचंद्र, बर्मन, रोशन, मदनमोहन, शंकर जयकिशन, ओ.पी. नैयर, रवि जैसे लोकप्रिय संगीतकारों के साथ हुस्नलाल भगतराम, बुलो सी रानी सरदार मलिक, एस. मोहिन्दर, एस.एन. त्रिपाठी, चित्रगुप्त नाशाद के साथ ही हंसराज बहल भी ऐसे ही गुणी संगीतकार थे, जिनकी फिल्में तो ज्यादा लोकप्रिय नहीं पर उन्हें गीत बहल ही लोकप्रिय हुए आज भी पुरानी पीढ़ी की जवान पर है। वे मग्र होकर आज भी रेडियो पर बड़ी तनमयता सुनते रहते हैं और सुनकर उन्हें एक सुखद आनंद की अनुभूति भी होती है। कुंदनलाल सहगत के गीतों पर निस्सिम प्रेम करने वाले हंसराज बहल का जन्म लाहौर में हुआ। गीत-संगीत में बचपन से रूचि थी। उम्र के साथ वे रूचि बढ़ती थी। उम्र के साथ वे रूचि बढ़ती गई। इसी संगीत का जुनून मुम्बई खेंच लाया। 2-3 वर्ष संघर्ष करने के बाद उन्हें पुजारी (1946) में संगीत देने का अवसर मिल गया। इसमें बाल कलाकार बेवी मुमताज ने अभिनय के साथ कुछ गीत भी गाये। भगवान मेरे ज्ञान के दीप जलादे बहुत ही लोकप्रिय हुआ। यह बेबी मुमताज कोई और नहीं सौंदर्य सम्राज्ञी अभिनय सम्पल अभिनेत्री मधुवाला थीं। जिसने बरसो लोगों के दिलों पे राज किया। उसके बाद चुनरिया (1948) में सावन आये रे जागे मेरे भाग सखी में जोहरा बाई और गीतादत्त के साथ आशा भोसले को पहिली बार गीत गाने का अवसर दिया और सिने जगत को एक प्रतिभाशाली उत्कृष्ट गायिका मिल गई। आशा उन दिनों अपना करियर बनाने के लिए संघर्ष कर रही थीं। उन दिनों आशा चिचपोकली की झोपड़ पटटी में रहा सकती थी। एक दिन हंसराज बहल उनस मिलने गये तो आशा के बाल बिखरे हुये थे, साडी भी ठीक नहीं पहिने थी और सर झुकाये घर में पोंछा लगा रही थी। हंसराज बहल उन्हें हस हालत में पहिचान नहीं सके और कहा जाओ आशा मेडम को बुलाओ आशा जी अंदर गई फ्रेश होकर अच्छे कपड़े पहिने अच्छे से बाल बनाये, चोटी डाली और बाहर आईं। हंसराज ने अब उन्हें पहिचान तो लिया था पर बिना कुछ कहे उन्हें 2-3 फिल्मों में गाने का ऑफर दे गये। सुरैया ने भी एक बाल कलाकार के रूप में नौशाद के संगीत निर्देशन से करियर शुरू किया था। बाद में हुस्नलाल भगतराम, अनिल विश्वास बुलो सी. रानी श्यामसुंदर आदि संगीतकारों ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया था, पर हंसराज बहल के संगीत में कभी न बिगड़े किसी की मोटर रस्ते में (मोतीमहल) रस्ते में खड़े है हम (राजपूत) दर्दे दिल थाम ले (खिलाड़ी) तड़प ये दिल, सोजा मेरी लाड़ली (रेशमी) जैसे गीत गाकर उनके गीतों से गायन में निखार और दिन-ब-दिन माधुर्य भी बढ़ता गया। अन्य में सब कुछ लुटाया हमने आकर तेली गली में। हाय चंदा हाये परदेस (चकोरी) शिकवा न करेंगे (जेवरात) याद तुम्हारी क्यूं आये बालम (नखरे) तड़प ये दिल (शान) रफी जमाना दस-दस के दस नोट का (शान शमशाद) दिल देके बहुत पछताये (दोस्त)मीठी-मीठी लोरियां मैं धीरे-धीरे गार रे (अपनी इज्जत) मधुवाला जव्हेरी। नैनो की नगरी में आके चले जाना (पुजारी-अमीर बाई) चांद से प्यारे चांद हो (रात की नानी-लता-रफी) दिल है नादान जमानें (मस्तकलंदर आशा, तलत) भूलके कर बैठे सुहानी भूल (राजधानी-तलत-लता) रास्ते में खड़े हैं हम (राजपूत-सुरैया) गीतों ने कभी लोगों को लुभाया था। हंसराज, बहल के भाई गुलशन बहल भी एक फिल्म निर्माता थे। एन.सी. फिल्म की ओर से राजधानी, चंगेजाखान मिस बॉम्बे, मुड-मुड़ के देख, दारा सिंह, सिकंदरे आजम, आदि फिल्मों में हंसराज बहल के गीत बहुत लोकप्रिय हुए। अपने प्रिय गायक सहगत से अपने संगीत में गीत गवाने की बहुत इच्छा थी। हीररांझा फिल्म में सहगल गाने वाले भी थे, पर किस्मत को ये मंजूर न था। इसी बीच सहगत का निधन हो गया। हंसराज बहल की ये हसरत दिल की दिल में रह गई पूरी न हो सकी। 1970 के बाद नये संगीतकारों का साम्राज्य बढ़ता गया। संगीत और गीतों में माधुर्य कम हो गया और आर्केस्ट्रा के आक्रोश के बीच सुरीलापन कहीं खो गया। पुराने संगीतकार गीतकार और गायकों की इतने वर्ष साधना भंग होती दिखाई दी। पुरानी पीढ़ी के संगीतकार इस बदलते वातावरण से समझौता करने में असफल रह गये और पिछड़ते गये। 1983 में नूरजहां भारत आई तो उन पर बगुरवानंद हाल में विशाल स्वागत समारोह किया गया पर संयोजक इस गुणी संगीतकार को आमंत्रित करना भूल गये इसलिए वो बहुत ही विचलित हुए। जीवन के अंतिम दिनों में उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनकी अंतिम फिल्म थी (दो आंखे) इसमें मो. रफी ने कमल के फूल जैसा बदन तेरा चिकना गाया था। रफी साहब ने उनसे कोई मानधन तो लिया नहीं परउनकी आर्थिक मदद भी की। 20 मई 1984 को उनका निधन हो गया, पर आज भी हाये जिया रोये, जिंदगी भर गम जुदाई का मुहोब्बत जिंदा रहती है भीगा-भीगता प्यार समां, जहां डाल-डाल पर सोने की चिडिय़ा करती बसेरा लोगों के कानों में गूंजती रहती है। -मधु हातेकर, (प्रैसवार्ता)
Thursday, November 26, 2009
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