सन् 1965 में लेखकों के साथ प्रकाशकों का जो अनुबंध हुआ उसमें प्रकाशक 7 से 12 प्रतिशत रॉयल्टी देते थे, किन्तु आज भी लेखकों की रॉयल्टी में कोई वृद्धि नहीं हुई, बल्कि कुछ घटकर ही मिलने की परम्परा चल रही है। सच्चाई यह है कि, सरकार का प्रकाशकों को आज भी पूरा सहयोग उपलब्ध है, परन्तु प्रकाशक लेखकों की जगह नौकरशाहों को पैसा देना ज्यादा पसंद करते हैं कि, किताबें लाइब्रेरी जैसे स्थलों पर लगे और बिके। ''राधे गोपाल स्वरूप'' रॉयल्टी की प्रथा को देखा जाये तो सुव्यवस्थित एवं विश्वसनीय ढंग से चलाने का श्रेय इने-गिने प्रकाशकों को ही प्राप्त है। इस प्रथा का पालन अधिकांश प्रकाशक नहीं कर पाते। वे स्वेच्छा नुसार एक मुश्त एकम चुका कर कॉपीराइट ही खरीद लेते हैं। इससे लेखकों की रचनायें सस्ते दामों पर खरीदकर काफी धन इका कर लेते हैं और फिर वे कभी लेखकों की ओर फूटी नजर से भी देखना नहीं चाहते। यह पूंजी पतियों की परिपार्टी कुछ सीमित लेखक समाज के लिए उचित ठहरती है, किन्तु सामान्यत: लेखक अब भी दयनीय स्थिति में जीते हैं। वे अपनी पुस्तकों की कॉपीराइट बेचने को विवश होते हैं, क्योंकि रॉयल्टी के पैसे लेखकों के लिए आकाश कुसुम ही होते हैं। लेखक और प्रकाशकों का सदैव से चोली-दामन का साथ रहा है और आगे में बदस्तूर जारी रहेगा। भले ही प्रकाशक पुस्तकें न बिकने और घाटे का रोना रोते हुए रॉयल्टी देने से बचते रहे हों। जबकि प्रकाशकों ने लेखकों की रचनाओं को अपने व्यवसाय का साधन हमेशा ही बनाया है। एक बात समझने की है, यदि सच में प्रकाशकों को घाटा उठाना पड़ता है तो प्रकाशन का व्यवसाय दिनों-दिन विस्तार क्यों लेता है। इस संदर्भ में डा. सूरिदेव जी का मानना है कि, रॉयल्टी की राशि लेखकों को सही ढंग से देने की प्रथा में परिशुद्धि की अधिक आवश्यकता है। जबकि कुछ ऐसे भी आदर्श प्रकाशक हैं, जो इस परम्परा का निर्वाहन सुचारू रूप से संचालित कर रहे हैं। उनके नजरों की तरह। सामान्यतय: भारत में लेखकों को अपनी पुस्तकों की रॉयल्टी से जीना दुभर रहा है। यह स्थिति केवल सामान्य लेखकों की ही नहीं नामचीन लेखकों की भी रही है। इनमें निराला, प्रेमचंद, दिनकर, शिवपूजन सहाय एवं अमरकांत जैसे लेखकों का नाम सर्वोपरि है। चित्रा मुद्गल का भी इस संदर्भ में मानना है कि, व्योवृद्ध साहित्य अकादमी पुरस्कृत लेखक अमरकांत का एक समय था, उनकी पुस्तकें खूब बिकीं। किन्तु समय ने करवट बदला कि स्वयम् और परिवार का खर्चा उठाना भी दुश्कर हो गया। बीमारी ने उन्हें ऊपर से नीचे ला दिया। परिणामत: पुरस्कर तक बेचने की नौबत आ गई। अमरकांत जी को लगता कि उनकी इस दशा का जिम्मेदार प्रकाशक है-जो उनकी रॉयल्टी दबा कर बैठ गये। क्या भारतीय विशेषकर हिन्दी लेखकों की ऐसी दयनीय स्थिति सदैव बनी रहेगी तो विचारणीय है। सन् 1965 ई. में भारत की जनसंख्या लगभग 38 करोड़ थी। तब उडिय़ा के फकीर चंद, तमिल के सुब्रह्मण्यम हमारी भारतीय भाषाओं में जितने प्रचलित थे उससे अधिक रशियन लेखक प्रसिद्धि पा रहे थे। ऐसा इसलिए कि सरकारों ने विश्व स्तर पर उत्कृष्ट भारतीय साहित्य की स्थाना के प्रति कभी रूचि नहीं दिखाई। इससे बड़ा विचारणीय चिंतन और क्या हो सकता है कि, मुशी प्रेमचंद आज भी विश्व के मानस पटल पर स्थापित नहीं हो सके। क्या ऐसा नहीं लगता कि, हिन्दी का लेखक हिन्दी प्रदेशों में ही पढ़ा जाता रहा और भाषाओं के उन भाषी प्रदेशों में प्रचलित रहे। जबकि हिन्दी में अधिक लेखक पढ़े जाते रहे, किन्तु अन्य भाषाओं में हिन्दी के ज्यादा अनुवाद नहीं हुए। जितनी पुस्तकें बाजार में बिकनी चाहिए थी नहीं बिकी। कारण उन पर क्षेत्रवाद का नशा था। इसमें अकादमियों भी सहयोगी रहीं। इससे भारतीय भाषाओं की रचनाएं बाजार सही ढंग से नहीं पा सकीं और लेखकों को रॉयल्टी। पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों, व्यवस्था पत्रों की भी लेख परिश्रामिक के बारे में देखा जाये तो प्रकाशकों के समान ही उपेक्षात्मक नीति हुआ करती है। निराला की साहित्य साधना के यशोधन लेखक ने भी प्रसंगवश माना है कि संपादकीय नीति साधारणतय: यह रहती है कि, लेखकों को कुछ दिये बिना ही हिन्दी सेवा के नाम पर उनसे लेख प्राप्त किये जायें। यदि मजबूरी से परिश्रामिक देना स्वीकार किया तो भरसक उसे टालते रहते हैं। जब किसी तरह पीछा नहीं छूटता तभी परिश्रामिक दिया जाता है। इस इतिहास से सरस्वती और माधुरी जैसी युग संस्थापक श्रेष्ठ पत्रिकाएं भी अछूती नहीं रहीं। इतिहास पुरूष 'पदम सिंह' ने भी यह माना है कि सरस्वती और माधुरी पंूजी पतियों की पत्रिकाएं हैं, परन्तु उनके संपादक अपनी कारगुजारी दिखाने के लिए लेखकों को कोस टरका देते हैं। इसके बावजूद लेखकों की रचनाएं लेना अपना अधिकार समझते हैं। पुस्तकें लिखने के पारिश्रमिक की दर बहुत अच्छी नहीं, फिर भी शर्त के अनुसार प्रकाशक राशि नहीं देता। इन्हें इतिहास पुरूष 'शर्मा' ने 'अर्थपिशाच' की संज्ञ से विभूषित किया है। सच्चाई के धरातल पर प्रकाशकों की अदूरदर्शिता या कि, अर्थ लोलुपता सारे महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित होने से वंचित रह जाते हैं प्राय:। अन्तत: विनिष्ट हो राष्ट्र की सारस्वत समृद्धि बाधित करते हैं। उदाहरणार्थ सन् 1928 ई. में हिन्दी जगत के सर्वोपरि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को विशाल भारत में उनके संस्करण प्रकाशित करने के लिए पं. बनारसी दास चतुर्वेदी 5 रुपए प्रति पृष्ठ देने को तैयार थे। इस बाबत द्विवेदी जी ने उन्हें लिखा कि, इतना तौर संस्कृति और माधुरी तथा सुधा पत्रिका में टिप्पणी लिखने को देते हैं। द्विवेदी जी की चाहत थी कि, कोई उनहें 5 रुपए प्रति कॉलम दे या फिर 5 हजार रुपए में उनकी रचनाओं की कॉपीराइट खरीद ले, जबकि द्विवेदी जी 5 हजार रुपये अपने लिए नहीं बल्कि जरूरतमंदों को खैरात बांटने के लिए मांग रहे थे। परिणामत: हिन्दी प्रकाशकों की अर्थलिस्टा ने द्विवेदी जी की संस्मरण गाथा को अप्रकाशित ही कर डाला। इसी तरह महाप्राण 'निराला' ने अपनी कई महनीय पुस्तकों का तो दो से ढाई सो रुपये में कॉपीराइट बेच दिया। इनकी लेखकीय स्थिति यह थी कि, एक लेख के 15-20 मिल जाते थे, वो भी हर महीने नहीं। क्योंकि कोई भी पत्रिका हर माह उनका लेख नहीं छाप सकती थी। यहां तक कि, हिन्दी की अधिकांश पत्रिकाएं सन् 1927 ई. तक उनके लेख छापने को तैयार नहीं थी। यही स्थिति आज भी हमारे जैसे रचनाकारों-मसलन जनकवि प्रकाश, मुनेन्द्र नाथ श्रीवास्तव, रमेश नाचीज, एवं मूरख इलाहाबादी की है-जो एक विडम्बना मूलक स्थिति है। देखा जाये तो आधुनिक पत्रकारिता में पारस्परिक ईष्र्या द्वेष और व्यक्तिवादिता का नग्न ताण्डव पूर्व की भांति वर्तमान में भी यथावत है साथ ही अपेक्षित भाव विशुद्धि का सर्वथा अभाव सा हो गया है। प्रकाशकों की प्राय: यह मंशा रहती है कि, वे लेखकों को यत्किन्चित राशि देकर उनकी पुस्तकों की कॉपीराइट (सर्वाधिकार) खरीद लें ताकि उन्हें रॉयल्टी (बिक्री पारिश्रामिक) देने का मामला ही न रहे। -राधेगोपाल स्वरूप (प्रैसवार्ता)
Wednesday, November 25, 2009
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