स्थान- कुमार सानू का रेकार्डिंग स्टूडियो सबा म्यूजिक वल्र्ड/संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारे लाल जोड़ी के प्यारेलाल को म्यूजिक अरेंजर के रूप में वहां देखना किसी सुखद एहसास से कम नहीं था। साून की पहली निर्मित फिल्म 'वसुंधरा-डेडीकेटेड टु लव' में उनका यह रूप बहुत सारे लोगों को भले ही चौंका जाये, पर गायक सानू इसे प्यारेलाल जी की महानता मानते hain वे कहते हैं, संगीत सृजन में उनके अनुभव के सामने हम सब बच्चे हैं। मेरी दिली ख्वाहिश थी कि मेरी फिल्म में उनका कुछ न योगदान जरूर हो। बतौर संगीतकार मैंने इस फिल्म के लिए कई धुनें बनायी थीं। एक दिन मौका देखकर मैंने उन्हें ये धुनें सुनायीं। इनमें से कुछ धुनों की उन्होंने जमकर तारीफ की। बस मैंने झट उनसे आग्रह कर डाला कि यदि आप इनका अरेंजमेंट करने के लिए तैयार हो, तो इनमें एक नयी आ जा जाएगी। सानू के मुताबिक 'मैं खुशकिस्मत हूं कि उन्होंने मेरा आग्रह मान लिया, वरना लक्ष्मीकांत जी की मृत्यु के बाद से वे कई बड़े ऑफर ठुकरा चुके हैं। पैंसठ के हो चुके प्यारेलाल कहते हैं, मैं जरा भी थका नहीं हंू। बस अब लक्ष्मी के जाने के बाद से दौड़-भाग में मन नही रमता। मगर जब भी कोई स्नेहभरा आग्रह आता है तो इनकार करना मुश्किल होता है। वे चाहे लक्ष्मीकांत रहे हों या प्यारेलाल, उनका हसंमुख चेहरा हमेशा उनकी पहचान बना रहा। कभी इस जोड़ी के प्रिय गीतकार आनंद बख्शी ने उनकी तारीफ में कहा था, उनके व्यक्तित्व का मिठास उनकी बनायी धुनों पर भी झलकता था। एक बार उन्होंने मुझे गुनगुनाते हुए सुना तो लता जी के साथ फिल्म मोम की गुडिय़ा का एक डुएट गवाने की जिद पाल ली। मैं बहुत नर्वस हो गया। मगर अंतत: उनकी जिद ही चली। लता जी ने गीत की रिकार्डिंग के दौरान मेरा बहुत उत्साह बढ़ाया। मगर उनके सामने तो बड़े से बड़े पेशेवर गायक घबरा जाते हैं, मैं तो एक अनुभवहीन गायक था। बाद में यह गाना बागों में बहार आयी, खूब लोकप्रिय हुआ तो वे बराबर मुझसे गाने के लिए कहने लगे थे। मगर मैंने अपने गायन को हमेशा शौकिया रखा। कभी उनकी फिल्मों में कुछ अंतरे गाकर ही मैं संतुष्ट हो जाता था। फिल्म चरस में मैंने लता और रफी के गाये एक डुयेट ओ आ जा तेरी याद आई.., का शुरुआती मुखड़ा, दिल इनसान को एक तराजू गाया था, जिसके लिए मुझे हजारों बधाई पात्र मिले थे, मगर मैं इसका पूरा श्रेय उन्हें देना चाहूंगा। असल में उनकी बनायी भावपूर्ण धुनें गायकों के लिए एक संबल बन जाती थीं, जिसके चलते मुझ जैसे शौकिया गायक भी श्रोताओं की तारीफ बटोर लेता था। संगीत के एक ऐसे दौरे में जब टीन-कनस्तर पीटने वाले संगीतकारों का बोलबाला है, इस जोड़ी की उपलब्धियां किसी आठवें आश्चर्य से कम नहीं लगती हैं। आज मेलोड़ी की दुहाई देने वाले नकलची संगीतकार किसी फिल्म के एक गाने के हिट होने पर ही इतराते नहीं थकते हैं। मगर इस जोड़ी की पास दर्जनों ऐसी फिल्में हैं, जिसके लगभग हर गाने सुपरहिट थे। इस जोड़ी को एलजी नाम संगीतकार जयकिशन ने दिया था। उन दिनों को याद कर प्यारेलाल बताते हैं, एकमात्र शंकर जयकिशन और ओपी नैयर ऐसे संगीतकार थे जिनके साथ हमने बतौर सहायक काम नहीं किया। वे हमारी जोड़ी को लल्लू-पंजू कहते थे। हमने उनके मजाक का कभी बुरा नहीं माना, क्योंकि वे हमारे सबसे ज्यादा पंसदीदा संगीतकार थे, हमने उनहें सबसे ऊंचा दर्जा दे रखा था। संगीत क्षितिज के उच्च मुकाम में एक नहीं पूरे पच्चीस साल तक अपना परचम फहरा चुके इस जोड़ी की यह विनम्रता है। उनकी सफलता का एक कारण बनी, पारसमणि, दोस्ती, सती सावित्री, हम सब उस्ताद हैं, अनिता जैसी कई छोटी फिल्मों में बेहद वर्णप्रिय संगीत देकर उन्होंने सारे दिग्गज फिल्मकारों का मन जीत लिया था। दोस्ती (1964), दो रास्ते (1969) और बॉबी (1973) उनके कैरियर के तीन ऐसे महत्वपूर्ण पड़ाव थे, जिसके चलते उन्हें हिन्दी फिल्म संगीत का युगपुरुष भी कहा गया। इस संबोधन पर कई लोगों की थोड़ी आपत्ति हो सकती है, पर उनके पच्चीस साल से ज्यादा के सुनहरे दौर को याद करके यह बहुत अतार्किक नहीं लगता है। उनकी इस आशातीत सफलता के पीछे संगीत के प्रति उनका गहरा लगाव ही एकमात्र बताते हैं। मेरे पिता पंडित रामप्रसाद शर्मा बैंडमास्टर थे। हम पांचों भाइयों मेरे अलावा गणेश, आनंद, गोरखनाथ, महेश और नरेश को संगीत का काफी शौक था। बहुत छोटी उम्र में पिता जी ने मुझे वायलिन सिखाना शुरू कर दिया। मुझे लगा कि वायलिन के आगे स्कूली शिक्षा कोई मायने नहीं रखती है। मैं वायलिन में पूरी तरह से डूब गया। थोड़ी-बहुत पढ़ाई रात्रिकालीन स्कूल में जाकर पूरी की। मात्र 12 साल की उम्र में वायलिन बजाकर मैं पैसे कमाने लगा था। रणजीत स्टूडियो में मुझे वायलिन वादक की नौकर मिल गयी थी। उन दिनों बड़ी प्रोडक्शन कंपनियों में सभी मंथली सेलरी में काम करते थे। वहीं मेरी मुलाकात लक्ष्मीकांत से हुई, जो वहां मंडोलिन बजाते थे। हम जल्दी ही गहरे मित्र बन गये। सात-आठ साल रणजीत स्टूडियो में काम करने के बाद लक्ष्मीकांत ने सुझाव दिया कि हमें स्वतंत्र रूप से कुछ करना चाहिए। बस हम नौकरी छोड़कर म्यूजिशियन बन गये। संगीत के प्रति उनकी गहरी समझ ने जल्द ही उन्हें उस दौर के सारे बड़े संगीतकारों का प्रिय सहायक बना दिया, अपने दौर के सबसे महंगे सहायक बनने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा, मगर उनका लक्ष्य दूसरा था। मूवी लैंड की फिल्म 'पारसमणि' ने उन्हें यह मौका दिया, पारसमणि के सारे गाने लोगों की जुवां पर चढ़ गये। खास तौर से इसके गीत हंसता हुआ नूरानी चेहरा की तरह उनका चेहरा भी लोगों के दिलों दिमाग में हमेशा के लिए छा गया। मगर वे कुछ दिनों तक छोटी फिल्मों के मकडज़ाल में उलझा गये। लेकिन 1965 में दोस्ती के लिए फिल्मफेयर अवार्ड हथियाकर उन्होंने इस मकडज़ाल को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया। पुराने दौर के कुछ पत्रकारा मानते हैं कि दोस्ती का संगीत वाकई में बहुत कर्णप्रिय था, मर शंकर जयकिशन की संगम को मात देने के लिए थोड़ी बहुत तिकड़मबाजी का सहारा लिया था जो उन दिनों एक स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता मानी जाती थी। सारे संगीतकार ही बेहद गुणी थे और फिल्मफेयर पुरस्कारों को लेकर उनमें एक जबरदस्त क्रेज था, लेकिन आज यह क्रेज एक विकृत रूप ले चुकी है। प्यारेलाल इस बात को विवाद नहीं बनाना चाहते हैं। उन्होंने सात बार फिल्म अवार्ड हासिल किया, जो आज भी एक रिकार्ड है। संगीतकार नदीम-श्रवण ने इस रिकार्ड को छूने की कोशिश की थी, पर चार बार के बाद वे भी शांत हो गये। हाल ही में शेमारू वीडियो ने मेलेडी सांग आफ लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल टाइटल से जारी अपने दो विशेष वीडियो साज-सज्जा के साथ जारी किये हैं। प्यारेलाल कहते हैं, हमने रिकार्ड बनाने के लिए कभी काम नहीं किया। मैं आज भी यही चाहता हंू कि लोग पूरी तन्मयता के साथ संगीत सृजन करें। ऐसे लोगों के साथ मैं हमेशा हूं, नकली संगीतकारों को क्या यह आवाज सुनाई पड़ेगी।-जसप्रीत सिंह (प्रैसवार्ता)
Wednesday, November 18, 2009
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