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Thursday, November 26, 2009

बाल फिल्में और बच्चे

आधुनिक युग में इलैक्ट्रोनिक मीडिया से उपजे शोर व विदेशी प्रसारण सेवाओं की अंधाधुंध बाढ़ ने हमारे परिवार में तहलका मचा दिया है-जिसमें जिज्ञासाओं का ऐसा बबंडर उठा है कि जब बड़े इसकी गिरफ्त में है, तो छोटे बच्चों को इन साधनों के उपयोग से कैसे रोका जा सकता है। रही बात, मनोरंजन की, तो भारतीय तथा विदेशी फिल्मों में, जहां टकराव है, वही रोमांचकारी विदेशी फिल्में डरावनी व कुछ भी कर गुजरने का सबल देती है, फिल्मों को देखना बच्चे को एक प्रदत्त अधिकार प्राप्त है कि यह तो उनके हक में शामिल है, जिसे माता-पिता देखने देने से वंचित नहीं रख सकते हैं। कम उम्र में स्कूल भेजे जाने से बच्चों में अपनी उग्र से अधिक सोच समझ का विकास हुआ है, वही वह अपने पर माता-पिता द्वारा रोक टोक लगाये जाने पर उग्र हो जाते है, तो परिस्थितियों को संभालना मुश्किल हो जाता है, चूंकि जिज्ञासा वश घर में बड़े भी टेलीविजन को देखते हैं। छोटे बच्चों के रहने पर बड़े ही नजर अंदाज कर जाते हैं कि वह क्या समझते होंगे, किन्तु बाद में वही लापरवाही नुकसान देह व बच्चों को प्रतिद्वन्दी की श्रेणी में लाकर खड़ी कर देती है। भारतीय समाज में मध्यम वर्ग व निम्र वर्ग की सोच, समझ व स्थिति में फर्क है। वहां फिल्मों का अभाव जल्दी देखने में आता है, बच्चे पूर्ण विकसित तो होते नहीं, जो देखा, सोचते हैं, सही है और अंजाम देने पर उतर आते हैं। ऐसे में सामाजिक व्यवस्था तो बिगड़ती ही है, साथ में बच्चे का भविष्य व माता-पिता की आशाओं उम्मीदों पर ढेरों तुषाराघात पड़ जाता है। यह कहना गलत होगा कि विज्ञान मनोरंजन व कुछ सीखने जैसी फिल्में बच्चों पर प्रभाव नहीं डालती, डालती हैं, किन्तु इनका प्रतिशत कम ही होता है। ज्यादातर लोग हिन्दी में बच्चों को बहादुरी, साहस व चमत्कार की फिल्मों को प्रधानता देते हैं। पशु, पक्षी, प्यार व उनसे दोस्ती की कहानियां भी होती है, जिस पर प्रतिक्रिया जुटाने पर पाया कि, ''बकवास, हर जगह मात्र शिक्षा, कैसी शिक्षा देना चाहते है-यह फिल्म बनाने वाले। हैरानी की बात की इतनी अच्छी फिल्मों पर यह प्रतिक्रया, उन्हें चाहिए स्पाईडरमैन, शक्तिमान जैसे करैक्टर, यानि कुछ करे या न करें, किंतु इतनी पावन, इतना बल अवश्य हो कि वे किसी की भी मदद कर सकें, हां बच्चों को कभी अपनी मदद व अपने बारे में सोचने का शायद वक्त ही नहीं है। कार्टून फिल्मों में जिस तेजी से चित्र चलते हैं वह कहानी दौड़ती है, उसी रफ्तार से उनको मजा आता है। यदि डॉयलाग डिलेवरी में भी फर्क या दूरी है, तो बच्चों को तुरंत ही बोरियत आ घेरती है। इतनी उतावली व उग्र प्रवृत्ति की पीढ़ी का क्या करें, क्या इन्हें धीरज व धैर्य वाली, ज्ञान की या जिज्ञासा वाली कोई मूवी दिखा सकेंगे। मुख्य बात तो तब है कि अधिकांश परिवारों में बच्चों को लेकर थियेटर ले जाना ही कठिन है। माता-पिता अपने लिये ही समय मुश्किल से निकाल पाते हैं, तो, बच्चों को उनकी बाल उम्र तक एक या दो फिल्में दिखा दो, तो समझो बहुत हो गया। बच्चे अपनी पूर्ति टैलीविजन से करते हैं। उस पर दिखाई जाने वाली किसी भी तरह की फिल्म उनको तो देखना है, चाहे वह ठीक हो या नहीं। यह दावित्य बनता है हमारा, कि हम बड़े बच्चों के चहूंमुखी विकास के लिए अच्छी व बेहतर फिल्मों का निर्माण कर उन्हें बच्चों के देखने व दिखाने की व्यवस्था करनी चाहिये। जैसे आजादी के या स्वास्थ्य के संबंध में बड़ों को जागृत कर रहे है, वैसे ही बच्चों के लिए फिल्में, नर्सरी, स्कूलों व मेलों की फिल्में दिखाई जाये, जिससे उनकी अच्छी सोच व समझ स्वस्थ मनोरंजन पद्धति का विकास हो। -अंजना छलौत्रे 'शशि',प्रैसवार्ता

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