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Monday, November 16, 2009

भारतीय प्रधानमंत्रियों को शांति का नोबल पुरस्कार क्यों नहीं मिलता?

बराक ओबामा को शांति का नोबल पुरस्कार दे दिया गया। अच्छा है घर की चीज घर में ही रह गई। घी कहां गया? खिचड़ी में। सर्वे गुणा: कान्चनम आश्रयन्ति। सारे अच्छे गुण गोरे लोगों में ही ढूंढे जाते हैं। बराक ओबामा के नोबल पुरस्कार की नींव अर्धविक्षिप्त जार्ज बुश द्वितीय ने रखी थी। जिसने एक और पागल बिन लादेन एवं रासायनिक शस्त्र ढूंढने के बहाने पूरे मध्य एशिया को तहस नहस कर डाला। चूंकि बराक ओबामा ने मात्र छ: महीने के शासन के दौरान कोई आक्रमण नहीं किया अत: आनन फानन उन्हें नोबल पुरस्कार दे डाला। अब उन्हें बाकी समय विप्लव मचाने की पूरी स्वतंत्रता है। वैसे उन्हें यह शांति का नोबल पुरस्कार मध्य पूर्व से अमरीकी सेना न हटाने के लिए दिया गया है। गांधी जी ने ऐसा कोई कार्य ही नहीं किया था, कि उन्हें नोबल पुरस्कार से नवाजा जाकर नोबल पुरस्कार की गरिमा बढ़ाई जावे। वो तो रविन्द्रनाथ टैगोर को इसलिए दे दिया गया कि उस क्रान्ति के दौर में उन्होंने अंग्रेजों के विरोध में कुछ नहीं कहा। कहीं कहीं तो उन्होंने अंग्रेजों की प्रशंसा तक कर डाली। उनकी गूढ, गम्भीर कवितायें तो क्या अंग्रेजों को समझ में आई होंगी। हां अगर गांधी जी अंग्रेजों को भारत से भगाने की बजाय उन्हें यहीं रहकर भारतीयों का दमन करने का आग्रह करते तो जरुर उन्हें एक तो क्या कई नोबल पुरस्कार दे दिये जाते। इस विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र के प्रथम मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु नोबल पुरस्कार समिति की नजरों में नोबल पुरस्कार के योग्य नहीं थे। जिनके देश का अंग्रेज जाते जाते भी सारा खजाना लूट कर ले गये। जिन्होंने फटेहाल भुखमरी से ग्रसित तैंतीस करोड़ जनता को सम्हाला। जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर पंचशील का सिद्धांत रखा। जिन्होंने पूर्ण निरस्त्रीकरण की बात की। नोबल पीस कमेटी की नजरों में बिना अस्त्र-शस्त्रों के भला शांति कहां से आ सकती है। जिन्होंने पड़ोसियों से भाईचारे की बात की। इसी मुगालते में वे अपने देश की तीस हजार वर्ग किलोमीटर जमीन गवां बैठे। अभी भी हिन्दी चीनी भाई-भाई नामक चाकू हर देशवासी की पीठ में चुभा है और आने वाली पीढिय़ों में चुभा रहेगा। वे जवाहरलाल नेहरु पीस पुरस्कार के योग्य नहीं थे। तब भला भारत के दूसरे प्रधानमंत्री इस पुरस्कार के काबिल क्यों होते जिन्होंने एशिया में अमेरिका के कुत्ते को डंडा मार दिया था। वे तो जहर देने के काबिल थे। अत: षडय़ंत्र करके उन्हें जहर ही दिया गया। भारत की तीसरी प्रधान मंत्री इस पुरस्कार के योग्य नहीं थीं, जिन्होंने पाकिस्तान के उपनिवेश से बांग्लादेश को मुक्त कराया। राजीव गांधी इस पुरस्कार के योग्य नहीं थे जो श्रीलंका में शांति लाने के चक्कर में श्रीलंका में पिटे एवं अंत में इसी चक्कर में उन्हें जान गंवानी पड़ी। अमेरिका तो एक बहुमंजिली इमारत के ढहने को सहन नहीं कर पाता। कई राष्ट्रों को बदले में नेस्तनाबूद कर देता है। भारत तो दूसरे राष्ट्रों में शांति लाने में अपने प्रधानमंत्रियों की बलि भी चढ़ा देता है, पर उसके प्रधानमंत्री नोबल शांति पुरस्कार के योग्य नहीं होते। हां छोटे राष्ट्रों के राष्ट्रध्यक्ष तक जो नरसंहार करवाते रहते हैं इस योग्य रहते हैं। अटल बिहारी वाजपेई इस पुरस्कार के योग्य नहीं है, जिन्होंने हर बार पागल पड़ोसियों की तरफ दोस्ताना हाथ बढ़ाया और हर बार हाथों में चोट खाई, क्योंकि नोबल पीस कमेटी की नजरों में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ही पूरी दुनिया है। सर्वे गुणा:कान्चनम आश्रयन्ति। मनमोहन सिंह न तो इकानामी के नोबल पुरस्कार के योग्य है और न ही शांत राष्ट्रध्यक्ष के रुप में। जब बड़े-बड़े राष्ट्र तक इकानामिक रिसेशन को सहन नहीं कर पाये तब भारत मूंछों के अंदर खड़ा होकर मुस्कुराता रहा। अत: अब भारत के प्रधनमंत्री एवं आने वाले प्रधानमंत्रियों से अपेक्षा है, कि राष्ट्र की अस्मिता को गिरवी रखकर शांति न लायें बल्कि हमले का जवाब हमले से ही दें। -डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव (प्रैसवार्ता)

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