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Wednesday, November 18, 2009

मेरी आवाज ही पहचान है.....

शायर, गीतकार, लेखक और फिल्मकार गुलजार कुछ भी करें, उनके हर काम में उनका शायर ही हाथ बंटाता हुआ दिखता है। अपने गीतों की मुहावरेदार भाषा को फिल्मों में मान्यता ही नहीं, लोकप्रियता दिलाने वाले गुलजार ने फिल्में भी मानवीय संवेदन को आधार बना कर बनाई। गुलजार का कोई भी का एक संवेद्य गीत की तरह होता है। या यूं कह लें कि वह जो भी डिजाइन करते हैं, उसे संवेदना की रेशमी डोर से सजाते हैं। वह प्रोडक्ट मानवीय संवेदन की परीक्षा में मनोवैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। गुलजार उनका तखल्लुस (शायरों का उपनाम) है और नाम संपूरन सिंह। वह झेलम जिले (अब पाकिस्तान में) के दीना में जन्मे थे। बंटवारे के बाद वह दिल्ली गए, जहां प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़कर उन्होंने कवि के रूप में स्थानीय ख्याति अर्जित की। 1961 में वह बॉलीवुड से जुड़े, बिमल रॉय प्रोडक्शन में काम करके। गीतकार के रूप में उन्हें बिमल रॉय की फिल्म बंदिनी (1963) में एक गीत लिखने से ब्रेक मिला। यह गीत था-मोरा गोरा अंग लइ ले... उनकी प्रगतिशील सोच देखते हुए बिमल दा ने उन्हें अपना फुलटाइम असिस्टेंट बना लिया। इसके बाद उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी और असित सेन जैसे डायरेक्टरों के लिए फिल्मों की कहानियां लिखनी शुरू कर दीं। ऋषिकेश मुखर्जी के लिए आनंद (1970), गुड्डी (1971), बावर्ची (1972) और नमक हराम (1973) जैसी हिट फिल्में लिखीं और असित सेन को दो दूनीचार (1968), खामोशी (1969) और सफर (1970) जैसी फिल्में दीं। गुलजार जल्द ही फिल्मनिर्माता भी बन गए। उन्होंने मेरे अपने बनाई। हालांकि यह तपन सिन्हा की फिल्म अपांजन पर आधारित थी, मगर गुलजार ने इसे उत्तर भारत के नक्सली आंदोलन का रंग दे दिया था। उनहोंने परिचय (1972) बनाई, जो साउंड ऑफ म्यूजिक पर आधारित थी, वहीं कोशिश (1972) में उन्होंने गूंगे-बहरे दंपति की कहानी बुनी थी। इसी फिल्म को हीरो संजीव कुमार से उनका तालमेल बन गया। इस जोड़ी ने आंधी (1975), मौसम (1975), अंगूर (1981) और नमकीन (1982) जैसी महत्वपूर्ण फिल्में दी। संजीव कुमार की छोटी सी कैरियर यात्रा में उनकी जो बेहतरीन फिल्में हैं, वे गुलजार के साथ ही हैं। आंधी विवादों में भी घिरी। सूचित्रा सेन का रोल इंदिरा गांधी पर आधारित होने के कारण इमरजेंसी के दौरान फिल्म पर कुछ समय तक रोक लगी रही। गुलजार मानते हैं कि वर्तमान कभी पूरा नहीं होता, जब तक उस पर विगत की परछाइयां दिखें। शायद इसीलिए उनकी ज्यादातर फिल्मों में फ्लैशबैक तकनीक का बहुत सुंदर उपयोग हुआ है। उनकी संवेदनशील और सफल फिल्मों में कई खालिस कमर्शियल फिल्मों के कलाकारों ने सिर्फ इसलिए काम किया कि उनके अभिनय को सम्मान मिलेगा और वे अच्छे कलाकार के रूप में अपनी पहचान बना सकेंगे। ऐसा हुआ भी जीतेन्द्र (परिचय, खुशबू, किनारा)विनोद खन्ना (अचानक, मीरा, लेकिन) और हेमा मालिनी (खुशबू, किनारा, मीरा) ने अपना सर्वश्रेष्इ गुलजार को ही दिया। गुलजार को अपने मन का काम निकालने का हुनर मालूम था। यही उनके मन का काम उस कलाकार का सबसे अच्छा काम बन जाता। सिर्फ ऐक्टरों से, बल्कि संगीत के मामले में भी उन्होंने आर.डी बर्मन को एक वर्सटाइल म्यूजिक डायरेक्टरों के रूप में पेश किया, जबकि आर.डी बर्मन पॉप संगीत के मामले में बहुत मशहूर थे। जहां आर.डी बर्मन पाश्चात्य संगीत को फिल्मों में लोकप्रिय बना रहे थे, वहीं उन्होंने गुलजार के साथ हिंदुस्तानी संगीत के मास्टरपीस गाने कंपोज किए-बीती ना बिताए रैना (परिचय), इस मोड़ से जाते हैं (आंधी), मांझी रे (खुशबू), नाम गुम जाएगा (किनारा) और मेरा कुछ सामान (इजाजत) ऐसे ही कुछ गाने हैं। 1980 के आखिर और 1990 का दशक फिल्मकार गुलजार के लिए अच्छा नहीं रहा। (1990), माचिस (1996) जैसी महत्वपूर्ण फिल्में बनाई। समीक्षकों की तारीफ के बावजूद ये फिल्में आग नहीं पैदा कर सकीं। आखिरी फिल्म हुतूूतू (1999) के फ्लॉप होने के बाद गुलजार ने टीवी के लिए मिर्जा गालिब धारावाहिक का निर्माण किया। हां फिल्मों में वह पहले की तरह गीत, डायलॉग और स्क्रीन प्ले लिखते रहे। गीतकार लेखक के रूप में उनका बेहतरीन काम मासूम, रुदाली, थोड़ी सी बेवफाई, बसेरा, सदमा, गुलामी, माया, मेमसाब, दिल से और सत्या में दिखई देता है। गुलजार तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके हैं। कोशिश की बेस्ट स्क्रीन प्ले के लिए, मौसम के बेस्ट डायरेक्शन के लिए इज्जत के बेस्ट लिरिसिस्ट के लिए। वह 14 बार फिल्मफेयर अवार्ड भी ले चुके हैं। उम्र के इस पड़ाव पर लगता है कि उनकी लेखनी ने नया आकाश तलाश लिया है। उन्होंने जीवन भर प्रयोग किए और सफलता पाई, लेकिन प्रयोगों का उनका सिलसिला नहीं थमा, एक ओर ओमकारा का गाना बीड़ी जलाइले... है तो दूसरी तरफ बंटी और बबली का गाना कजरारे कजरारे.... -विवेक भटनागर (प्रैसवार्ता)

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