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Wednesday, November 18, 2009

राजकुमारों के राजकुमार प्रदीप कुमार

परदे पर तो उन्होंने अधिकतर किरदार प्रिंस, राजकुमार, बादशाह के निभाए, लेकिन निजी जिंदगी में भी वह राजकुमारों जैसी राजसी ठाठबाट से रहे। विदेशी ब्रांड की महंगी सिगरेट तथा शराब उनके शौक थे। हिंदी और बंगला फिल्मों में उन्हें समान रूप से सफलता मिली। दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद और अशोक कुमार की चौकड़ी के आगे वे डटे रहे। ऐतिहासिक चरित्रों और मुगल साम्राज्य के अनेक किरदारों में उनकी मोनोपली बनी रही। यह चर्चा की जा रही है अभिनेता प्रदीप कुमार की, जिनकी अनेक फिल्में: अनारकली, नागिन, आरती, बरसात की रात, ताजमहल, चित्रलेखा, क्रांति आज भी नयी तथा पुरानी पीढ़ी के दर्शकों द्वारा पसंद की जा रही है। 4 जनवरी 1925 को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के कट्टर ब्राह्मण परिवार में प्रदीप कुमार का जन्म हुआ था। उनके पिता सुरेन्द्रनाथ बटवायल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे। अपनी तरह बेटे प्रदीप को वे नामी वकील बनाना चाहते थे। प्रदीप का बचपन से लगाव थिएटर की तरफ था। इसलिए जब कभी थिएटर करते, पिता को पता तक नहीं चलता था। अपनी कढ़ाई समाप्त कर वे कोलकाता के ग्रेट ईस्टर्न होटल में रिसेप्शनिस्ट हो गए। शाम को होटल में छूटते ही थिएटर देखने या करने चले जाते। सजीला और आकर्षक व्यक्तित्व होने से होटल के यात्री जाते समय अच्छी-खासी रकम टिप में दे दिया करते थे। टिप में मिली रकम वे मां की हथेली पर रख देते। जब मां देर से घर लौटने का कारण पूछती, तो प्रदीप उन्हें ओवरटाइम का बहाना बना देते थे। उन्नीस साल की उम्र में कैमरामैन धीरेन डे के सहायक बन गए, क्योंकि पिताजी का सख्त आदेश् था कि एक्टर कभी मत बनना। न्यू थिएटर की फिल्म अलकनंदा में प्रदीप के किरदार को देख फिल्मकार देबकी बोस ने उनकी प्रतिभा पहचानी। बोस के प्रत्यनों से पिताजी ने भी अभिनेता बनने की इजाजत दे दी। बंगला फिल्मों में प्रदीप कुमार की पहचान क्रांतिकारी अथवा राष्ट्रवादी अभिनेता की रही। भुली नाय (48) तथा सन् बयालीस (49) उनकी चर्चित बंगला फिल्में हैं। पचास के दशक में प्रदीप कुमार मुंबई आकर फिल्मिस्तान से जुड़ गए। बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास पर आधारित फिल्म आनंदमठ से उनकी हिंदी फिल्मों में पहचान बनी। इसमें पृथ्वीराज कपूर और गीता बाली जैसी नामी कलाकार थे। ऊंची कद-काठी, घुंघराले बाल, चौड़ा मस्तक, बुलंद आवाज और राजा-बादशाहों जैसी चाल-ढाल, बोलने का अंदाज उन्हें महाराज साबित करने के लिए पर्याप्त था। जब के आसिफ की फिल्म मुगल--आजम लंबी खिंची जा रही थी, तो फिल्मिस्तान ने उसी कथानक पर अनारकली (53) फिल्म बनाकर बनाकर रिलीज कर दी। सलीम का रोल पहले शम्मी कपूर को दिया जाने वाला था, जो प्रदीप के पाले में गया। विरोधियों ने अफवाह फैला दी कि बांग्ला नायक मुगलिया रोल में क्या जमेगा और उर्दू संवाद कैसे बोलेगा? लिहाजा वितरकों ने फिल्म नहीं खरीदी। मजबूर होकर निर्माता ने खुद रिलीज की। देशभर में अनारकली की धूम मच गई। इसके गीत-संगीत ने दर्शकों का ऐसा मन मोल लिया कि फिल्म ने कई शहरों में गोल्डन जुब्ली मनाई। ऐतिहासिक चरित्रों के अलावा प्रेम कथाओं में बरसात की रात, बहू-बेगम, भीगी रात उल्लेखनीय है। स्टंट फिल्मों में उन्होंने मारधाड़ के दृश्यों में अपना गठीली कसरती बदन कभी नहीं दिखाया। ऐसी फिल्मों में उस्तादों के उस्ताद, अफसाना और शतरंज के मोहरे के नाम गिनाए जा सकते हैं। खलनायकी में उन्हें दर्शकों ने नकार दिया। कमाल अमरोही की महत्वकांक्षी फिल्म रजिया सुल्तान (हेमा-धर्मेंद्र) में उन्होंने गुलाम अल्तुतमिश के किरदार को यादगार बनाया। हरिशचंद्र-तारामती में वे आखिरी बार नायक के रोल में दिखाई दिए। इसके बाद उन्हें काम मिलना कम हो गया और फिल्मों में संन्यास ले लिया। उन्होंने अपनी प्रेमिका छवि से गुपचुप शादी कर कई महीनों तक छुपाए रखा। वह जाति से क्षत्रिय थी। छवि ने उन्हें चाल संतानें दीं-दो बेटे, दो बेटियां। एक बेटी वीना ने कई फिल्मों में चरित्र रोल किए हैं। अपने समय की तमाम महशूर तारिकाओं: नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला, गीता बाली, वैजयंती माला, वहीदा रहमान, माला सिन्हा, नलिनी जयवंत, नूतन बीना राय और आशा पारेख के नायक रहे। जरूरत से ज्यादा फिल्में करने के कारण बीआर चोपड़ा ने उन्हें फिल्म कानून से हटा दिया। बिमल राय ने फिल्म सुजाता से बाहर कर दिया। अभिनेता के अलावा पैसा कमाने के लिए वे निर्माता बने और पुलिस, शोला, राय बहादुर, मिट्टी में सोना, एक मालिक जैसी फ्लॉप फिल्में बनाईं और भारी घाटा सहना पड़ा। निर्देशक के बतौर दो दिलों की दास्तान (66) रिलीज हुई और शिकार अधूरी रह गई। इसी तरह फिल्मिस्तान की फिल्म झांसी की रानी के वे नायक थे, मगर सोहराव मोदी की फिल्म झांसी की रानी प्रदर्शित होने से वह अधूरी रह गई। टेलीविजन के लिए कुछ फिल्में और धारावाहिक का निर्माण भी प्रदीप कुमार के खाते में दर्ज है। प्रदीप कुमार की फिल्मों की एक विशेषता और है कि उनका गीत-संगीत गली-गली में गंूजा था। मसलन जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा। (ताजमहल), मेरा मन डोले तन डोले (नागिन), जिंदगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है (अनारकली), भूली हुई यादो मुझे इतना सताओ (संजोग), सौ बार जन्म लेंगे (उस्तादों के उस्ताद) आज भी रेडियो पर बजते हैं। प्रदीप कुमार ने 75 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया और 76 बरसों तक शान से जिए। 27 अक्तूबर, 2001 को उनका निधन हो गया। -मनमोहित (प्रैसवार्ता)

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