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Wednesday, November 25, 2009

सरकारी विवशता या अक्षमता

गन्ना मूल्य के संबंध में जो बवाल हुआ, जो हंगामा हुआ और जितना राष्ट्र की सम्पत्ति का नुकसान हुआ, वह उससे कहीं ज्यादा है जो गन्ना मूल्य किसान मांग रहे थे। रेलों की पटरियां उखाड़ी गईं, वाहनों में आग लगा दी गईं, सड़कों पर जाम लग गया, मुसाफिर बेहाल रहे, मरीज समय पर इलाज से तरस गये। यह सब इसलिए हुआ कि सरकार और मिलें किसानों को उनके गन्ने का वाजिब मूल्य देना नहीं चाहते। आश्चर्यजनक है कि जब चीनी का मूल्य 40/- रुपये प्रतिज किलो कर दिया गया तो गन्ने का मूल्य 300 रुपए प्रति क्विंटल क्यों नहीं होना चाहिए। सभी जानते हैं किस प्रकार मील मालिकों ने वार्ता करके अपनी चीनी का मूल्य बढ़वाया होगा। किसानों में वह योग्यता नहीं है, वरना किसान भी यदि वही तरीका अपनाते तो अब तक गन्ने का मूल्य बढ़ गया होता। सरकारी अफसरों के वेतन हजारों से लाख हो गये। सांसदों और विधायकों के वेतन उनकी आवश्यकता से अधिक हो गये। सुविधाएं अलग से हैं, यानि जो हमारे प्रतिनिधि है वो धनाढ्य हो गये और हम गरीब के गरीब रह गये। जब सरकारी अफसरों के वेतन, अध्यापकों और प्रोफेसरों के वेतन, उद्योगपतियों के प्रबन्धकों और एकाउंटैंटों के वेतन और डाक्टरों की फीस कई-कई गुनी बढ़ सकती है तो गन्ने का मूल्य पिछले साल के मुकाबले तीन गुना क्यों नहीं होना चाहिए। सरकार गन्ने का मूल्य क्यों नहीं बढ़ा रही, ये किसान नहीं समझते वरना इस सुविधा शुल्क के युग में सरकार से कोई भी काम कराना जितना आसान है, उतना कभी नहीं था। राज ठाकरे ने विधानसभा में विधायक को पिटवा दिया, क्योंकि वह विधायक देश भक्ति के जनून में हिन्दी में शपथ ले रहा था। उसे क्या मालूम था कि देश द्रोहियों की ताकत इतनी बढ़ चुकी है कि अब सरकार नाम की कोई चीज विधान सभा में नहीं है। मेरी हमदर्दी है उस विधायक के साथ जिसने हिन्दी का झण्डा बुलंद रखा और ईश्वर से प्रार्थना है कि वह इन गुण्डागर्दी करने वालों को उचित सजा दे। बात यही पर नहीं रूकती देश की अखण्डता पर एक व्यक्ति लगातार आघात कर रहा है और हम देख रहे हैं। वरूण गांधी को भड़काऊँ भाषण के आरोप में जेल में डाल दिया जाता है और राज ठाकरे को कोई सजा नहीं दी जाती। राज ठाकरे ने पुन: विष-वमन किया है कि स्टेट बैंक की नौकरियां मुम्बई में केवल मराठियों को दी जाये और सरकार खामौश है। पहले उत्तर भारतीयों को पीटा गया। एक बिहारी युवक को पुलिस ने साहब को खुश करने के लिए गोली मार दी और बात आई-गई हो गई। क्या विवशता है कि हम राज ठाकरे को जेल में नहीं डाल सकते। सरकार इतनी कमजोर है तो गद्दी छोड़ क्यों नहीं देती और वहां कोई देश भक्त राज्यपाल क्यों नहीं बना दिया जाता। राज्यपाल शासन यदि किसी देश भक्त के हाथ में होगा तो ये गुण्डे सलाखों के पीछे होंगे। समलैंगिकता को मान्यता दे दी गई, यह बात सरकार के पक्ष में है, क्योंकि समलैंगिकता से आबादी रूक जायेगी और जनसंख्या इतनी तेजी से नहीं बढ़ेगी जितनी तेजी से बढ़ रही है, किन्तु आदमी जानवर से भी नचे गिर जायेगा। जानवरों में भी समलैंगिकता संबंध नहीं है। पक्षियों में भी समझ है, लेकिन आदमी वासना के वशीभूत होकर समलैंगिकता सम्बन्धों पर उतर आया है। कितना दुखदायी है यह विचार कि प्रकृति के नियम को तोड़कर स्त्री और पुरूष अपना-अपना धर्म, संस्कृति और सभ्यता को भूलकर समलैगिक सम्बन्धों की ओर भाग रहे हैं। व्यभिचार बढ़ रहा है। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है और सरकार इसको रोकने में अक्षम है। पोलियो उन्मूलन का शोर मच रहा है, अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं और जब तक रोटरी अन्तर्राष्ट्रीय जीवित है, तब तक पोलियो उन्मूलन चलता रहेगा और पोलियो के नये केस भी मिलते रहेंगे। क्योंकि रोटरी अन्तर्राष्ट्रीय भी नहीं चाहता कि पोलियो उन्मूलन हो। कारण सर्वज्ञात है। पोलियो का अरबों रुपया कहां गया, इसका उत्तर अगर जनता मांगेगी तो पता चलेगा कि अधिकांश धन फिल्मी सितारों के बयान दिलाने, पंडितों और मोलवियों के फतवे जारी कराने, रैलियां करने, पंच सितारा होटलों में दावतें खाने में खर्च हो गया और कुछ लोगों की जेबों में घुस गया। पोलियो उन्मूलन टीम दवा पिलाने गई और पीटकर भगा दी गई। सरकार को पिटने की आदत पड़ चुकी है। नेता कहते हैं जूते मार लो, जूते की चोट मंजूर है, लेकिन वोट की चोट मत दो। कितनी भी कोशिश कर ली जाये सरकार पोलियो उन्मूलन नहीं कर सकती और इससे हाथ भी नहीं खींच सकती, क्योंकि बहुत से हाथों को पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने चांदी का बना दिया है। क्रिकेट हमारी सबसे बड़ी मजबूरी है। हम क्रिकेट खेलने के लिए कितने विवश है, इसका अंदाजा इससे लगता है कि हम उन तीन देशों से क्रिकेट खेलते हैं, जो हमारा बिल्कुल भला नहीं चाहते। ऑस्ट्रेलिया में हमारे बच्चों से मारपीट की जा रही है और हम ऑस्ट्रेलिया से क्रिकेट खेल रहे हैं। पाकिस्तान जो हमारे देश के विरूद्ध आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रहा है, अपने यहां आतंकवादी अड्डे और शिविर चला रहा है। काशमीर में जो रोज वारदात कराता है, जिसके हाथ संसद के दरवाजे तक पहुंच गये थे, जिसके कारण मुंबई दहल गई थी। हम उससे भी क्रिकेट खेल रहे हैं। इग्लैंड जिसने हमें वर्षों गुलाम रखा, हमारे देश भक्तों को काला पानी की सजा दी, हम उसे साथ भी क्रिकेट खेल रहे हैं, यानि हम बेशर्म हो चुके हैं अथवा कोई ऐसी विवशता है जो हमें क्रिकेट खेलने के लिए विवश करती है। एक बात तो तय है कि क्रिकेट के खिलाडिय़ों को करोड़ों रुपए साल की आमदनी है और उनसे संबंधित व्यक्तियों को भी कुछ न कुछ तो मिलता ही है, जिससे वह क्रिकेट से बंधे हुए हैं। देश को क्या मिल रहा है। सिवाय नब्बे हार और दस जीत के। मैच फिक्सिंग कभी-कभी सुनने में आता है कि चंद सिक्कों के लिए मान प्रतिष्ठा सब बेच दी गई। क्रिकेट खिलाडिय़ों के दिमाग इतना खराब हो चुके हैं, उनमें इतना अहंकार बढ़ गया है कि वह पद्मश्री जैसे सम्मान को ठुकराकर विज्ञापन करने को अच्छा समझते हैं। देश क्रिकेट के सामने विवश है। जहां गरीबी सौ रुपये प्रतिदिन की दर से तोली जाती है, जहां हिन्दी के अध्यापक को तेरह सौ रुपये मासिक वेतन मिलता हो वहां क्रिकेट के खिलाड़ी को करोड़ों रुपये साल की आमदनी होना उन गरीबों के मुंह पर तमाचा है, जिनकी गरीबी हटाने की बात सरकार करती है। अमेरिका, चीन, जापान और रूस को भारत से शिक्षा लेनी चाहिए और अपने यहां भी क्रिकेट जैसे नामुराद खेल को आरंभ कर देना चाहिए। मिड-डे मील भी हमारी ऐसी ही विवशता बन चुकी है कि हम उसे समाप्त करने में अथवा उसकी शुद्धता बनाये रखने में अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। मिड-डे मील में प्रतिदिन कीड़े निकलना, सड़ा हुआ भोजन मिड-डे मील के नाम पर बच्चों को देना, उसे खाना और बच्चों का बीमार पडऩा रोज की बात हो गई है और हमें इसकी आदत पड़ गई है। बच्चे मरते हैं मरे, मिड-डे मील में अगर कीड़े नहीं होंगे तो उसमे बचेगा ही क्या। इसलिए सरकार देख रही है, कानून देख रहा है। मिड-डे मील का प्रयोग जारी है। बच्चों की बीमारी बरकरार है। कीड़ों को भोजन मिल रहा है और कीड़े बच्चों को मिल रहे हैं। हाय-री विवशता, हाय-री अक्षमता हम न तो मिड-डे मील को बंद कर सकते हैं और न ही उसमें श्ुद्धता ला सकते हैं। हम सब कुछ सहने और देखने के लिए विवश हैं, क्योंकि देश हित से बड़ा वह हित है जो मिड-डे मील में छुपा हुआ है। सीरियल जो टी.वी पर दिखाये जा रहे हैं, उनमे अश£ीलता और नग्रता की भरमार है, उद्देश्यहीन और निरर्थक सीरियर दिखाये जाते हैं। पता नहीं सरकारी मंत्रालय इनको देखता भी है या नहीं, इनके प्रसारण की अनुमति किस आधार पर दी जाती है। पिछले दिनों एक सीरियल खतरों का खिलड़ी आया था, जिसमें न मनोरंजन था न कोई शिक्षा थी, लेकिन विज्ञापन के बल पर उसका प्रसारण हुआ। इसी प्रकार आजकल पति पत्नी और वो तथा बिग बौस नाम के दो सीरियल चल रहे हैं। दोनों में कोई शिक्षाप्रद बात नहीं है, कोई मनोरंजन नहीं है, कोई उद्देश्य नहीं है, लेकिन सरकारी विवशता है कि इनका प्रसारण हो रहा है। सीरियल के अंदर विज्ञापनों की संख्या भी तय नहीं है। तीस मिनट के सीरियल में तीस से अधिक विज्ञापन होते हैं। भले ही व्यक्ति विज्ञापन न देखना चाहे, लेकिन सीरियल के लालच में देखना पड़ता है। हम कितने विवश है कि सीरियल में विज्ञापन की संख्या भी प्रतिबन्धित नहीं कर सकते। एक और सुखद तथय है कि कुछ सीरियल अन्तहीन हो गये हैं। असीमित एपीसोड किसी-किसी सीरियल के दिखाये जा रहे हैं। लोग उनको नकार चुके हैं। ऐसे विज्ञापनों से और सीरियल से उब चुके हैं, लेकिन वह टी.वी पर अपना स्थान बनाये हुए है। हमारी विवशता देखिए कि हम न तो विज्ञापनों की सीमा निश्चित कर सकते हैं, और न ही टी.वी. सीरियल के एपीसोड की सीमा निश्चित कर सकते हैं। यह तो हम कहना ही नहीं चाहते और या हमारे कहने में दम नहीं है कि टी.वी. सीरियल ऐतिहासिक, धार्मिक, देश भक्ति से ओत-प्रोत, शिक्षाप्रद तथा उद्देश्यपूर्ण बनने चाहिए। भ्रष्टाचार के इस युग में सुविधाशुल्क के पहियों पर चलती हुई सरकार उस ओर बढ़ रही है, जिस ओर एक जादूगर सारे शहर के चूहों को लेकर एक पर्वत की ओर चला था और बांसुरी बजाते हुए पर्वत के किनारे तक ले गया, जहां एक-एक करके सारे चूहे पर्वत के नीचे बहने वाले समुद्र में गिर पड़े। भ्रष्टाचार भी एक ऐसा ही जादू है और सुविधा शुल्क ऐसी ही व्यवस्था है, जिसके कारण चीनी के दात तो बढ़ सकते हैं, लेकिन गन्ने का मूल्य नहीं। जिसके कारण मिड-डे मील में कीड़ों का मिलना स्वभाविक है। जिसके कारण बेरोजगारी होने के बावजूद रिक्त स्थानों को भरने के लिए विज्ञप्तियां नहीं होती, जिसके कारण टी.वी. पर अद्र्धनग्र अभिनेत्रियां हमारी पीढ़ी को बिगाडऩे के लिए थिरकती नजर आती हैं और भी कितनी विवशताएं हैं, जिनसे देश ग्रस्त है और जनता भुगत रही है। कब हजारा राष्ट्रीय चरित्र जागृत होगा और हम व्यक्तिगत हित के साथ-साथ देश हित को सर्वोपरि रखेंगे, प्रतीक्षा है। -हितेश कुमार शर्मा, बिजनौर (प्रैसवार्ता)

1 comment:

  1. बहुत गुस्सा अता है ऐसी बात सुनकर !!! हिंदी से ज्यादा मराठी भाषा का मान कब से हो गया!!! विवेकहीन मनुष्यों को उच्च पद मिलाने से यही होता गुंडाराज हाय हाय !!!

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