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Tuesday, June 1, 2010

क्यों चले जाते हैं लोग...?

आज भी रोज की तरह उषा का आलोक प्राची में फैल रहा था। घर के दहलान के सामने उपवन में देखा तो वहां चहल-पहल थी। जूही की प्यालियों में मकरन्द भरा था और दक्षिणी पवन फूलों की कौडिय़ां फेंक रहा था। कमर से झुकी हुई अलबेली बेलियां नाच रही थी। मन की हार-जीत चल रही थी। अचानक ख्याल आया क्यों आज बच्चों को क्कङ्कक्र पिक्चर दिखाने ले जाया जाए। समय अच्छा कट जाएगा और बच्चे भी आज अपनी छुट्टी का मनोरंजन कर लेंगे। करीब 12:45 का वक्त था। सूर्य देवता आसमान के मध्य में हैं ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था, क्योंकि दिसंबर का महीना चढ़ चुका था। ठण्डी और तेज पुरवाई चल रही थी, जिसके कारण सर्दी और बढ़ गई। बदली छाने के कारण अभी भी धुन्धला मौसम प्रगट हो रहा था। अथक और अजेय-हंसती चिल्लाती हवा जो अपने श्रम पर स्वयं ही मुग्ध थी, बादलों को ले उड़ी और नीले आकाश में सूर्य तारे की गुलाबी-सी किरण चमक उठी। मैं आनन्द विभोर थी और साथ में बच्चे भी। इस चंचल चीखते वातावरण के बीच स्वयं को टुटोलती हुई आगे बढ़ी और तीन टिकटें लेने के लिये अपने पंजे आगे बढ़ाए। हां, तो लीजिए जनाब शुरू हो गई फिल्म। फिल्म की कहानी कुछ खास नहीं लेकिन टाइम पास का अच्छा साधन थी, क्योंकि फिल्म कॉमेडियन थी। अब इन्टरवेल ने बाँहें पसारी और हम हॉल की सीढिय़ां उतरकर कैंटीन कुछ खाने-पीने के लिये गये। अचानक मैंने अपने होंठों के दोनों कोरों को फैलाया और यन्त्र चालित मुस्कान को उस आकृति के सामने पुरस्कृत किया जो मेरे सम्मुख खड़ी थी। पतला गोल मासूम चेहरा, काली आंखें और चिन्तनशील भी। रंग गोरा, कंधों के नीचे गिरते हुए काले घने लम्बे गेसू, पतली लम्बी उंगुलियां, उसके बाऐं कपोल पर एक तिल उसके सरल सौंदर्य का बांका बनाने के लिये पर्याप्त था और नाक चील की चोंच जैसी। काले रंग का कोट और नीले रंग का मफलर पहने हुए थी। साथ में काले रंग का जीन्स और मैचिंग काले चमकदार जूते। वैसे मेरी जल्दी किसी अजनबी से बोलने की आदत नहीं, स्वाभवत: मैं किसी को जल्दी मुस्कराकर रिसपांस देती। मगर, उसके व्यक्तित्व में जाने मुझे क्यों आकर्षित कर दिया और चाहते हुए भी उससे बात कर बैठी। बातों-बातों में पता चला कि उसके और मेरे बच्चे एक ही स्कूल और एक ही कक्षा में पढ़ते हैं। जब मैंने आधी अधूरी फिल्म उसे अपने साथ बैठकर देखने की ऑफर दी तो पलक झपकते ही वह गायब हो गई। मैंने सोचा शायद सीट नं. की वजह से दूर जाकर बैठ गई है या फिर उसे मेरी कंपनी पसंद नहीं। लेकिन फिल्म खत्म होने के बाद उसने मुझे स्वयं ही बुलाया और हम क्कङ्कक्र के बाहर आकर बैठ गये। ठण्डी हवा और मौसम का आनन्द लेने के साथ-साथ हमने एक दूसरे के विषय में जानने के लिए प्रश्रों की बौछार कर दी। मैं समझ नहीं पा रही थी, कि वो अपने पति के बारे में कुछ क्यों नही बता रही, मगर, बाद में बातचीत के दौरान पता चला कि उसके पति एक घटना के दौरान चल बसे। मुझे अचानक झटका सा लगा जैसे घड़ी की सुइयां रूक गईं हो, हवाएं थम सी गई हों, कहीं कोई पत्ता भी हिल रहा हो, वक्त वहीं ठहर गया हो, ऐसा प्रतीत होने लगा। आई...आई वाज शॉक्ड! माई गॉर्ड....आई..एम..सो..सॉरी! पर आपको देखकर ऐसा लगता तो नहीं। उसने बताया उसके पति को गुजरे लगभग तीन वर्ष हो चुके हैं और वो अब इस सदमें से बाहर चुकी है। उसका उज्जवल भविष्य और सपने पिरौते हुए देखना मुझे उसके चेहरे पर सा$ नज़र रहा था। मुझे एहसास हुआ कि वक़्त ने उसके जख़्म भर दिये हैं। उसकी आंखों की चमक बता रही थी, कि वह अजनबी दुनिया की भयावह भीड़ में किसी एक अपने की तलाश में भटक रही है। उसका चेहरा मेरे लिये एक खुली किताब बन चुका था। जिसे मैं आसानी से पढ़ सकती थी। उसके जख़्मों को ज्यादा करेदते हुए मैंने उसे दुआएं दी कि ईश्वर उसके भविष्य के लिये संजोए हुए सपनों को साकार करे। उसकी बातें मेरी रूह तक उतर गई, क्योंकि वह मुझे आशावादी के साथ-साथ धार्मिक स्वभाव की भी लगी। मैं सोचने लगी कितनी मासूम है यह और ऊपर से इतनी मीठी बोली बिल्कुल कोयल की तरह। दूसरी तरफ सोचने लगी ईश्वर भी कमज़ोर लोगों से ही कठिन इम्तिहान लेता है। क्या ईश्वर ने उसके साथ न्याय किया है? अगर उसके कर्मों में दोष है, तो उसकी सजा बच्चे क्यों भुगत रहे हैं? बिना पति के बच्चों को पालना क्या आसान होता है? एक विधवा मां को मां और बाप दोनों का ही रोल अदा करना पड़ता है और जीवन में चुनौतियां कया कम होती हैं? फिर सोचने लगी जब एक कड़ी टूट जाती है, तो उसे जोडऩा कितना ही मुश्किल हो जाता है। हां, वो जुड़ तो जाती है मगर वो वास्तविकता नहीं रह जाती। मगर, मैं यह भी जानती थी कि संसार कितनी तीव्रता से मनुष्य को चतुर बना देता है। निर्बल को बलवान बना देता है। मैंने उसे हौंसला रखने को कहा। ज्यादा कुछ कहते हुए अंत में मैंने उससे मोबाइल नं. लिया और कहा फिल्म तो कुछ खास नहीं लगी, मगर एक अच्छी दोस्त जरूर मिल गई। हां...फिल्म के पैसे वसूल हो गये। इतना कहते हुए हम दोनों हंस पड़े। मैंने भविष्य की शुभकामनाओं को देते हुए उससे विदा ली। बच्चों को लेकर सीधा घर की तरफ रवाना हुई। जब मैं घर पहुंची तो मुझे लगा कि वह मेरे में समा गई है। मैं, उसके प्रति इतनी भावुक क्यों हो रही हूं। मुझे समझ नहीं रहा था कि वो मेरे इतने करीब कैसे गई। मुझे उसके साथ बिताए हुए पल और उसकी मीठी खट्टी बातें याद रही थी। या फिर वह मेरी कमजोरी थी कि मैं दूसरों के दु: में इतना शामिल हो जाती हूं कि उसकी पीड़ा मुझे महसूस होने लगती है। उसका छोटी उम्र में विधवा होना फिर जिन्दगी से जुझना, मेरे विचारों का उबाल रूक सका और पीड़ा ने शब्दों का रूप ले लिया जिसे मैंने एक छोटी सी कविता के रूप में अपनी डायरी के पृष्ठों में कैद कर लिया-
''क्यों चले जाते हैं लोग...?
परियों के देश
सितारों की दुनिया में
एक नया घर बसाने
हमें तन्हा, निराश छोड़कर....?
अकेलेपन से लडऩे के लिए
जिन्दगी की जंग को जीतने के लिए
क्यों चले जाते हैं लोग....?
सात समुन्दर पार
गुडिय़ों के देश
सारा प्यार लुटाने
क्यों चलते जाते हैं लोग...?
यूं ही तन्हा छोड़कर
तितलियों के देश
एक दूसरी दुनिया में रंग भरने।"
-जसप्रीत कौर 'जस्सी' लुधियाना (प्रैसवार्ता)

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