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Tuesday, June 1, 2010

आंखों से ही जजब़ात व्यक्त करने वाले कलाकार-दिलीप कुमार

भारतीय फिल्म उद्योग एक ऐसा स्थान है, जहां प्रतिदिन कोई कोई नया अभिनेता या अभिनेत्री अपना भाग्य अजमाने के लिए कदम रखता है। कई सफल हो जाते हैं-जबकि कई गुमनामी अंधेरों में गुम हो जाते हैं। दिलीप कुमार भी एक ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने 40 के दशक में फिल्म उद्योग में कदम रखा और अपने जबरदस्त अभिनय की बदौलत सिने दर्शकों के दिलों में ऐसा स्थान बनाया कि आज भी लोग उनकी फिल्मों के संवाद और गीत गुनगुनाते हैं। दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसंबर 1922 रविवार को पेशावर में हुआ। बारह बहिन-भाईयों में से अकेले दिलीप कुमार ने फिल्मों में कदम रखा। उनका असली नाम युसुफ खान था। उनके पिता जनाब सखर खान फलों का कारोबार करते थे। वर्ष 1944 में मात्र 22 वर्ष की आयु में दिलीप साहब ने फिल्म ''ज्वार भाटा" के माध्यम से फिल्मी दुनिया में कदम रखा। इस फिल्म में उनके साथ नई कलाकार चंद्रकला पवार को पेश किया गया, परन्तु यह फिल्म कोई विशेष प्रभाव दिखा सकी। वर्ष 1947 में निर्देशक शौकत हुसैन रिजवी के निर्देशन में बनी फिल्म ''जुगनू" की जबरदस्त सफल्ता ने दिलीप कुमार को स्टार बना दिया। इस फिल्म् में उनके बतौर नायिका बेगम नूरजहां ने काम किया। इस जोड़ी की यह पहली और अंतिम फिल्म थी। इसी वर्ष देश की स्वतंत्रता के साथ ही भारत पाक का बंटवारा हो गया और नूरजहां शौकत हुसैन रिजवी से विवाह रचाकर पाकिस्तान चली गई। इस फिल्म का एक गीत ''यहां बदला वफा का बेवफाई से किया है, काफी लोकप्रिय हुआ। वर्ष 1948 में फिल्म ''शहीद" की शानदार सफलता ने दिलीप कुमार की प्रसिद्धि को चार चांद लगा दिये। इस फिल्म का यह गीत ''वतन की राह में, वतन के नौजवां शहीद हो," आज भी लोगों की जबां पर है। फिर इसी वर्ष ही वाडिया मूवीटोन्स की फिल्म ''मेला" में दिलीप कुमार ने अपने अभिनय का ऐसा जादू बिखेरा, कि फिल्म सुपरहिट हुई। 1949 में उन्होंने सुप्रसिद्ध निर्देशक महबूब खान की फिल्म ''अंदाज" में नरगिस और राज कपूर के साथ काम किया, मगर यह फिल्म भी सुपरहिट हुई। 1951 में निर्देशक नीतिन बोस की फिल्म ''दीदार" दिलीप कुमार के फिल्मी कैरियर की एक यादगार फिल्म कही जा सकती है। 1952 में उन्होंने निर्देशक महबूब खान द्वारा बनाई गई भारत की पहली 16 एम.एम रंगीन फिल्म ''आन" में अभिनय किया। इस फिल्म में दिलीप कुमार एक ऐसे नवयुक की भूमिका निभाई, जो एक अहंकारी साहिबजादी को सबक सिखाता है। 1955 में निर्देशक खान की शानदार फिल्म ''देवदास" आई जिसने रिकार्ड तोड़ सफलता प्राप्त की, बल्कि उस फिल्म में दिलीप साहिब के ''देवदास" की तरफ से बोले गये एक संवाद ''कौन कम्बख्त पीता है, जीने के लिए" ने ट्रेजडी किंग के रूप में विश्व स्तर पहचान बना दी। इस फिल्म के माध्यम से दिलीप कुमार और बैजंती माला की जोड़ी फिल्मी पर्दे पर पेश की गई। 1957 में दिलीप साहब ने निर्देशक बी.आर. चौपड़ा की फिल्म ''नया दौर" में एक तांगे वाले की भूमिका निभाकर सिने दर्शकों का दिल जीत लिया। बजैन्ती माला के साथ आई फिल्म ''मधुमति" को भी बॉक्स- ऑफिस पर खूब सफलता मिली। दिलीप कुमार-बैजन्ती माला की जोड़ी ने आठ फिल्मों में काम करते सभी फिल्मों में सफलता के रिकार्ड तोडे। फिर उन्होंने ''याराना" ''हलचल", ''दाग", ''सदगिल", ''फुटपाथ", ''आदमी", ''गंगा-यमुना", ''संगीना", ''राम और श्याम" इत्यादि यादगार फिल्मों ने अमित छाप छोड़ी, परन्तु जिस फिल्म ने दिलीप कुमार को फिल्म उद्योग के इतिहास में अमर कर दिया, उस फिल्म का नाम था, ''मुगले--आजम" इस फिल्म के निर्देशक के. आसिफ थे। यह फिल्म 5 अगस्त 1960 को मुंबई के मराठा मंदिर सिनेमा घर में रीलीज हुई और इसने सफलता का ऐसा इतिहास रचा, कि आज तक भी लोग इस फिल्म के दीवाने हैं। इस फिल्म में दिलीप साहब ने शहजादा सलीम और मधुबाला ने अनारकली की भूमिका निभाई थी। फिल्म में शहनशाह अकबर की भूमिका महान कलाकार पृथ्वी राज कपूर की थी। इस फिल्म के संवाद आज भी बच्चे-बच्चे की जुबां पर है। उनके अभिनय की विशेष पहचान थी कि, बगैर बोले ही आंखों के साथ ही जजबातों का इजहार कर देना। इसी दौर में उन्हें अभिनेत्री मधुबाला से प्यार हो गया, परन्तु यह इश्क सिरे चढ़ सका। दिलीप कुमार ने अपनी प्रतिभा के माध्यम से सर्वोत्तम अभिनेता के रूप में आठ ''फिल्मफेयर एवार्ड" जीते, जिनमें लगातार तीन बार पुरस्कार प्राप्त करने का गर्व प्राप्त किया। 1966 में उन्होंने अभिनेत्री नसीम बानों की बेटी सायरा बानो से निकाह कर लिया। दिलीप साहब ने 80 के दशक में भी अपनी चमक को मध्यम नहीं होने दिया। इस दशक में यश-चौपड़ा की फिल्म ''मशाल" सुभाष घई की फिल्में ''कर्मा" और ''सौदागर" आदि यादगारी और सुपर हिट फिल्में फिल्म जगत को दी। 1998 में उन्होंने आखरी बार फिल्म ''किला" में दिखाई दिये और इसके बाद उन्होंने फिल्म जगत से सन्यास ले लिया। वह इतने प्रसिद्ध थे कि एक बार पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दिल्ली के रामलीला मैदान में कहा था कि ''कोने-कोने" में लोगों की आवाज को बहुत बारीकी से सुना जाता है, एक मेरी और दूसरी दिलीप साहब की" विदेशी यात्री भी कहते थे कि दो चीजें भारत में जरूर देखने वाली हैं- ''ताजमहल" और ''दिलीप कुमार" ''प्रैसवार्ता" को दिए गए साक्षात्कार में एक बार दिलीप कुमार ने कहा था, कि वर्तमान में फिल्मी सितारे अपनी मर्जी और शर्तों पर फिल्में करते हैं, जबकि एक ऐसा जमाना भी था, जब उन्हें सख्त नियमों का पालन करने के साथ-साथ उल्लंघन होने पर दंडित होना पड़ता था। उन्हें याद है कि जब वह ''बाम्बे टाकीज कम्पनी" में काम करते थे, तब एक बार वह भड़कीले कपड़े पहनकर स्टूडियो पहुंचे, तो उन्हें चेतावनी मिली। एक बार स्टूडियो में सिगरेट पीने के कारण एक सौ रुपया का दंड दिया गया। उनका और राजकपूर की अकसर स्टूडियो छोड़कर दोपहर में फिल्मी शौ देखने की आदत थी और एक दिन ''बॉम्बे टाकीज" की मालकिन ने उन्हें देख लिया और दोनों को पास बुलाकर बड़े प्यार से फिल्म देखने आई विशेष अतिथि लेड़ी रामा राव, श्रीमति जमशेद जी टाटा और सहेलियों से मिलवाया। दिलीप साहब खुश हो गये, कि गलती माफ हो गई, परन्तु अगली पहली तिथि को उनका यह भ्रम टूट गया कि कोषाध्यक्ष ने उनके वेतन से एक सौ रुपया काट लिया। दिलीप साहब ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने अपनी सारी जिंदगी फिल्मों को समर्पित कर दी थी।.......... को महान कलाकार ने इस दुनिया से विदाई ले ली और पीछे छोड़ गये अपनी यादें, जो आज भी सिने दर्शकों के दिलों पर छाई हुई है। -चन्द्र मोहन ग्रोवर (प्रैसवार्ता)

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