पिछले कुछ समय में कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुई-जिसने लोकतंत्र के चतुर्थ स्तम्भ पर कई प्रश्र खड़े कर दिये। यह प्रश्र स्पष्ट है कि, जो मीडिया कर्मी या पत्रकार स्वयं ईमानदार न हो, तो वह लोकतंत्र की क्या सहायता करेगा? यह प्रश्र नया नहीं है-जब लोकतंत्र का तीसरा स्तम्भ न्यायपालिका भी विवादित हो जाये, तो यह ज्यादा गंभीर व चिंतनीय जरूर हो जाता है। कुछ समय पूर्व अजमेर सैक्स कांड का सरगना दिल्ली में गिरफ्तार हुआ, तो एक पुराना प्रकरण भी चर्चित हो उठा। इस प्रकरण में एक समाचार पत्र के सम्पादक की हत्या हो गई तो सारे अजमेर शहर में खुशी मनाई गई, परन्तु दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार ने इसे प्रैस की आजादी पर हमला बताते हुए सम्पादकीय तक लिख दिया, मगर जब सत्यता सामने आई, तो पता चला कि वह पत्रकारिता की आड़ में देह व्यापार का धंधा करता था। देश भर में पत्रकारिता का स्तर दिन प्रतिदिन गिर रहा है, क्योंकि इस मिशन में बहुत सी काली भेड़ों ने दस्तक दे दी है, जिनका पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं है, बल्कि पत्रकारिता की आड़ में गलत कार्य करने या करने वालों को संरक्षण देना है। नशीली दवाईयों के सौदागर नीम-हकीम, झोलाझाप डाक्टर, देह व्यापारी, टैक्स चोर की एक लंबी कतार पत्रकारिता जगत में देखी जाने लगी है। ज्यादातर लोग प्रैस कार्ड लेकर या अखबार का पंजीकरण करवाकर भ्रष्टाचार, दलाली, ठेकेदारी व अनैतिक कार्यों के लिए सुरक्षित कवच लिये हुए है। सभी पत्रकारों को एक ही नजर से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि कुछ पत्रकार लालच या स्वार्थ सिद्धी से दूर रहकर भी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। प्रश्र यह व्यक्ति का नहीं, बल्कि चतुर्थ स्तम्भ के विश्वास का है। पत्रकारिता के स्तम्भ की नींव में ही, जब दीमक नजर आने लगे, तो समझिये कि मजबूती को ग्रहण लगना शुरू हो गया है और पत्रकारिता के विश्वास पर संदेह के बादल मंडराने लग गये है। कुछ समाचार पत्र समूह पीत पत्रकारिता का प्रमुख केन्द्र बन गये हैं-जिन्हें राजनेताओं का आशीर्वाद है, वैसे भी उद्योगपति होने के कारण राजतंत्र, प्रशासनिक तंत्र, लठैत तंत्र पर प्रभावी पकड़ रखते हैं। ऐसे समाचार पत्रों से जुड़े संवाददाता न सिर्फ अपनी जेब खर्च से रिर्पोटिंग करते हैं, बल्कि विज्ञापन रूपी कटोरा लेकर विशेषांक के लिए दर-दर पर विज्ञापन भीख मांगते हैं। कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं-जो अपनी कलाकारी की बदौलत खूब चांदी कूट रहे हैं। गलत कार्य करने व भ्रष्ट अधिकारी का तो तबादला किया जा सकता है, परन्तु किसी मुहल्ला टाईम्स के प्रधान संपादक का क्या किया जा सकता है? फरीदाबाद में कुछ वर्ष पूर्व तक उद्योगपति के अपहरण व फिरौती की अवैध वसूली में एक महिला पत्रकार पकड़ी गई थी, जो राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों की रिपोर्टर थी। नोएडा की एक महिला पत्रकार भी कई विवादों के चलते विवादित रही है। इस महिला पत्रकार की ज्यादतियों से जनता जब एकत्रित हुई, तो पत्रकार जगत महिला पत्रकार की मदद पर खड़ा हो गया, तो विववशता वश सरकारी तंत्र को महिला पत्रकार का पक्ष लेना पड़ा। इस बात में कोई संदेह की गुंजाईश नहीं कि, पत्रकार भी इसी समाज का एक अंग हैं और सामाजिक प्राणी होने के कारण कुछ दोष उसमें भी पाये जा सकते हैं, परन्तु यह आधार मानकर उसे क्षमा नहीं किया जाना चाहिये। दरअसल ऐसे पत्रकार दोहरा जुर्म करते हैं। एक तो वह समाज और कानून के साथ तो दूसरा पत्रकारिता के साथ करते हैं। प्रैस को मिली स्वतंत्रता, समाज, कानून व लोकतंत्र सत्य को उजागर करने के लिए मिली है, ना कि सत्य को या स्वयं को उस आजादी को बेचने के लिए। कई बार पत्रकारिता समाचार पत्र समूह, राजनेता व प्रशासनिक तंत्र का शिकार हो जाती है-ऐसी स्थिति में पत्रकार संगठनों को आगे आना पड़ता है। पंजाब लोक सेवा कमिशन का मुखिया भी एक पत्रकार था। कश्मीर में आतंकवादियों के लिए पैसा एकत्रित करने का दोषी भी एक पत्रकार पाया गया। प्रैस अपनी आलोचना स्वयं करे, यह कटु तो है, मगर जरूरी भी। अपने गिरेबां में न देखना, अपने इर्द-गिर्द की गंदगी को साफ न करने के कारण ही राजनीति तथा न्यायपालिका लांछित हुई है। ऐसी स्थिति में प्रैस को होने वाले हश्र की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये, बल्कि अपना नजरिया बदल कर अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिये। -चन्द्र मोहन ग्रोवर (प्रैसवार्ता)
Tuesday, June 1, 2010
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