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Monday, November 23, 2009

न्याय सस्ता और सुलभ-एक मजाक

भारत के संविधान में प्रमुख रूप से लिखा है कि प्रत्येक नागरिक को न्याय सस्ता शीघ्र सुलभ कराया जायेगा, किन्तु संविधान की यह धारा एक मजाक बनकर रह गई है। वर्तमान में न तो न्याय सस्ता है और न सुलभ है। न्याय शीघ्र होने की बात सोचना ही बेकार है। यदि दुर्भाग्यवश आप किसी मुकदमे में फंस गये और किसी ने आपके विरूद्ध मुकदमा दायर कर दिया अथवा किसी विवशता के कारण आपको किसी के विरूद्ध मुकदमा दायर करना पड़ा तो समझ लीजिए न तो आपको न्याय सस्ता मिलेगा और न ही शीघ्र सुलभ हो सकेगा। मुकदमा शुरू होने के बाद सबसे पहला काम आपको अपने आपको मुकदमा आंरभ करने के लिए तैयार करने का होगा, जिसके लिए आपको पारिवारिक सलाह की आवश्यकता भी पड़ेगी। जब आपने मन बना लिया कि मुकदमा आरंभ होना है तो अधिवक्ता महोदय से संपर्क करना भी आवश्यक हो जायेगा। अधिवक्ता महोदय यदि वरिष्ठतम है और उनका नाम है तो वह सलाह की फीस भी लेंगे और आरंभ हो जायेगा धन देने का सिलसिला। अधिवक्ता महोदय की सलाह के बाद जवाब दावा अथवा दावा तैयार किया जायेगा, जिसके लिए वकील साहब की फीस अलग से होगी। मुंशी भी अपने पैसे लेगा और उसके बाद टाईप आदि कराने में खर्चा होगा। टाईप के पश्चात् न्याय शुल्क, मुकदमा शुल्क आदि जमा करना होगा, जो कहीं-कहीं तो लाखों में है। प्रतिशत के हिसाब से देखा जाये तो बड़े मुकदमे में न्याय शुल्क ही इतना लग जाता है, कि मुकदमा आरंभ करने वाला व्यक्ति पसीने-पसीने हो जाता है। ऋण वसूली अधिकरण अपील की फीस 15 हजार से एक लाख पचास हजार तक है। व्यापारकर अधिनियम के अन्तर्गत प्रथम अपील फीस एक हजार रुपये तथा द्वितीय अपील फीस 21 सौ रुपये तक है। इतना महंगा न्याय शुल्क होने पर न्याय सस्ता और सुलभ कैसे हो सकता है। प्रार्थना-पत्रों पर टिकट अलग लगते हैं। वकालतनामे पर टिकट अलग लगता है और उसके बाद तैयार कराकर वाद दावा अथवा जवाब दावा प्रस्तुत किया जाता है। जिसके लिए दायरा खर्च जो लगभग वैधानिक है, देना पड़ता है अन्यथा आपका दावा अथवा जवाब दावा प्रथम तो लिया ही नहीं जाता और अगर ले लिया तो खो जाता है। यदि नहीं खोया तो दूषित खाने में डाल दिया जाता है। अत: दायरा खर्च देना मंदिर में भेंट देने के समान होता है, जो देना ही है। यदि आप मुकदमे के निस्तारण तक अंतरिम स्थगन आदेश लेना चाहते हैं, तो उसका खर्च अलग से होता है। प्रार्थना-पत्र, शपथ पत्र, टाईप, न्याय शुल्क, मुंशीयाना, नजराना, मेहनताना अलग से दय होता है, यह भी सैंकड़ों से ऊपर निकल जाता है। न्याय और महंगा हो जाता है। सस्ता और सुलभ न्याय का सपना अंतरिक्ष में खो जाता है। यदि आप मुकदमा शीघ्र तय कराना चाहते हैं तो आपको फाईल में पैर लगाने पड़ेंगे, जिनकी कीमत हजारों में हो सकती है, तब मुकदमा चलकर अदालत में न्यायाधीश महोदय की मेज तक पहुंचेगा और आपके प्रतिपक्षी को मुकदमे की सुनवाई में अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए नोटिस दिया जायेगा। यह समन करने का खर्चा भी आपको ही उठाना होगा और यदि विशेष रूप से पत्रवाहक को भेजने की नौबत आती है तो उसके आने-जाने का खर्चा भी आपके ही जिम्मे है। समन जारी करने वाले व्यक्ति को खुश करना और समन जारी करने के लिए राजी करना भी आपकी ही जिम्मेदारी है। मुकदमे के दौरान जो भी कागज आप दाखिल करेंगे, उस पर वजन रखना बहुत आवश्यक है, वरना कागज उड़ जायेगा और फाईल तक नहीं पहुंचेगा। इस संबंध में आपकी कोई भी शिकायत नहीं सुनी जायेगी। वजन भी मुकदमे के वजन के अनुरूप रखना आवश्यक होता है। मुकदमा आरंभ हो गया और यदि आपको किसी मजबूरी के कारण निश्चित तिथि पर उपस्थित होने में कठिनाई है तो आपको स्थगन लेना पड़ेगा, जिसके लिए प्रार्थना पत्र पर टिकट लगना अनिवार्य है। साथ ही अदालत यदि चाहे तो आपके विरूद्ध खर्चा भी डाल सकती है, जो सैंकड़ों में भी हो सकता है और हजारों में भी हो सकता है। यदि मुकदमे में गवाही की आवश्यकता पड़ती है तो गवाहों को लाना उनको खाना खिलाना और उनको समझा बुझाकर गवाही दिलाना पूर्णतया आप पर निर्भर करता है, यदि आपका गवाह नाखुश होगा तो गवाही का आपको कोई लाभ नहीं मिल सकता। हर पेशी पर गवाह को लाना और उसे खुश रखना उसका खर्चा उठाना भी मुकदमे की कार्यवाही में सम्मिलित होता है। गवाही आदि समाप्त होने के पश्चात यदि आपको कोई साक्ष्य देना है तो उसकी फोटो कापी कराना व साक्ष्य संबंधित स्थान से प्राप्त करना भी मुफ्त का कार्य नहीं है। इसमें भी खर्चा होता है। प्रत्येक तारीख पर आपके आने-जाने में जो हर्जा व खर्चा होता है वह अलग है, उसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। मुकदमे की पूरी तैयारी होने के बाद बहस होनी होती है। अधिवक्ता महोदय बहस की तैयारी के पूर्व अपनी फीस जमा कराना नहीं भूलते। बहस यदि लिखित देनी है तो उसका टाईप का खर्चा भी अलग से होता है। इस अवसर पर मुंशी भी अपना मुंशीयाना लेने से नहीं चूकते, यदि बहस में उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णयों की प्रतिलिपियां देनी है तो उनकी फोटो कॉपी आदि कराने में भी खर्चा होता है। यदि निश्चित तिथि पर बहस हो गई तो समझ लीजिए आप बहुत भाग्यवान है। बहस के उपरांत अन्य दीगर खर्चे भी कम नहीं होते। अब आपको प्रतीक्षा होती है निर्णय की। कुछ अदालतों में निर्णय तुरंत हो जाता है, कुछ में निर्णय लंबित हो जाता है। निर्णय के पश्चात उसकी नकल का प्रार्थना-पत्र भी खर्चा मांगता है। नकल तैयार कराना, टाईप कराना, भी खर्चे का काम है। निर्णय यदि आपके पक्ष में है तो इनाम इकराम भी चलते हैं, क्योंकि भविष्य में भी आपके मुकदमे हो सकते हैं अत: इनाम इकराम का खर्चा भी उठाना आवश्यक है। यदि निर्णय आपके विरूद्ध है तो तैयार हो जाईये जिंदगी की अंतिम सांस तक लड़ाई के लिए अर्थात आपको उच्च न्यायालय के समक्ष अपील करनी ही पड़ेगी और यदि निचली अदालत और उच्च न्यायालय के बीच में कोई और न्यायालय है तो उसे भी संभालना संभव नहीं होता। उच्च न्यायालय का खर्चा हर आदमी के लिए उठाना संभव नहीं होता। प्रथम तो यदि उच्च न्यायालय आपके नगर में नहीं है तो वहां जाने-आने के लिए रेलवे में आरक्षण आवश्यक है अन्यथा भीड़ में ट्रेन में नहीं चढ़ सकते। इलाहाबाद पहुंचकर वहां अपने इच्छित अधिवक्ता के निवास स्थान तक पहुंचने में बाधाएं आती हैं। वहां तक पहुंचने के बाद मुकदमे का प्रारंभिक खर्चा और अधिवक्ता महोदय की फीस सब मिलाकर आपके पास देने के लिए धन नहीं होता अत:कुछ देते हैं और कुछ देने का वायदा करके आ जाते हैं। अब आरंभ होता है अन्तहीन प्रतीक्षा का सिलसिला। उच्च न्यायालय के समक्ष इतने मुकदमे लंबित है कि नंबर वर्षों में आता है। मुकदमे की सुनवाई की सूचना भी अधिवक्ता की मेहरबानी पर निर्भर करती है, क्योंकि वादी अथवा प्रतिवादी को सीधे नोटिस नहीं आता। पहली बार मुकदमे के कागज प्राप्त होने के बाद यह आशा की जाती है कि वादी अथवा प्रतिवादी स्वयं अपने मुकदमे की तारीख का पता करे और अपने अधिवक्ता से संपर्क करे। कभी-कभी न्यायालय में रिक्त स्थान की पूर्ति में अधिक समय लग जाता है और पीठासीन अधिकारी की नियुक्ति न होने के कारण मुकदमा लम्बा खिचता जाता है। अभी व्यापार कर अधिकरण में न्यायिक सदस्यों की नियुक्ति में 5 माह का समय लगा। स्थानांतरण के उपरांत नये पीठासीन अधिकारी की नियुक्ति 5 माह बाद हुई। 5 माह तक मामले लम्बित रहे। बिजनौर में प्रथम अपील अधिकारी की नियुक्ति डेढ़ वर्ष से नहीं हुई है। जिन अधिकारी महोदय के पास बिजनौर का प्रभार है, वह महीने दो महीने में एक बार आते हैं और इस प्रकार मुकदमे लंबित होते जा रहे हैं। ऐसा क्यों नहीं होता कि स्थानांतरण से पूर्व ही उस स्थान पर नियुक्ति कर दी जाये और न्यायालय या कार्यालय एक दिन भी रिक्त न रहे। उपरोक्त सभी खर्चे सुविधा शुल्क के अतिरिक्त हैं, यदि किसी मामले में सुविधा शुल्क देय होता है तो खर्चे का अनुमान लगाना संभव नहीं होता। यदि हम चाहते हैं कि न्याय व्यवस्था संविधान के अनुरूप सस्ती, सुलभ और शीघ्रतम हो तो आमूल चूल परिवर्तन करना आवश्यक है, जो वर्तमान समय में संभव नहीं है, क्योंकि पुरानी परिपाटी से हटने को कोई तैयार नहीं है। राष्ट्रीय चरित्र नाम की कोई चीज बाकी नहीं बची है। हम इसी प्रकार जीने के आदि हो चुके हैं और जी रहे है तथा न्याय व्यवस्था के नाम पर आंसु पी रहे है। पता नहीं सविधान का लिखा कब सच होगा। - हितेश कुमार शर्मा,बिजनौर

1 comment:

  1. पता नहीं सविधान का लिखा कब सच होगा.kabhi nahi.

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